Mere Bachpan Ke Din Class 9 ,
Mere Bachpan Ke Din Class 9 Summary , Summary Of Mere Bachpan Ke Din Class 9 Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 7, मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश कक्षा 9 हिन्दी क्षितिज भाग 1 अध्याय 7
Mere Bachpan Ke Din Class 9 Summary
मेरे बचपन के दिन पाठ का सारांश कक्षा 9
Note – “मेरे बचपन के दिन” पाठ के प्रश्न उत्तर पढ़ने के लिए Link में Click करें – Next Page
मेरे बचपन के दिन एक संस्मरण हैं। जिसकी लेखिका महादेवी वर्मा जी हैं। महादेवी वर्मा ने “मेरे बचपन के दिन” में अपने बचपन व स्कूल , कॉलेज के दिनों की खट्टी मीठी यादों को संजोया हैं। उन्होंने उस वक्त के सामाजिक जीवन , लड़कियों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण , अपने घर का माहौल , उनके प्रति उनके माता-पिता का सकारात्मक रवैया व अपने स्कूल के सहपाठियों के बारे में बताया हैं।
इस पाठ में लेखिका ने यह बताया है कि उस वक्त लोगों का लड़कियों के प्रति व्यवहार अच्छा नहीं था। उनको पैदा होते ही मार दिया जाता था। कुछ भाग्यशाली अगर बच भी जाती , तो उनके साथ जन्म से ही भेदभाव शुरू हो जाता था। लेकिन लेखिका खुश किस्मत थी कि उनके घर में इस तरह का माहौल नहीं था। गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में उन्होंने भी छोटा सा सहयोग दिया था।
Mere Bachpan Ke Din Class 9 Summary
कहानी की शुरुआत करते हुए लेखिका कहती हैं कि उनके परिवार में 200 वर्ष बाद किसी लड़की ने जन्म लिया। और उस लड़की को प्राप्त करने के लिए उनके दादाजी ने माता दुर्गा की पूजा आराधना की थी। उनके पिताजी बहुत ही खुले विचारों के व्यक्ति थे। वो चाहते थे कि उनकी पुत्री पढ़ लिखकर विदुषी बने।
उनके पिता अंग्रेजी जानते थे और घर में उर्दू और फारसी सभी लोग जानते थे। उनकी माताजी जबलपुर की थी जो हिंदी और संस्कृत जानती थी। इसीलिए हिंदी और संस्कृत पढ़ना उन्होंने अपनी माता से सीखा। लेखिका कहती हैं कि उनकी माता ने उन्हें पंचतंत्र की कहानियां पढ़ने की प्रेरणा दी। पंचतंत्र की कहानियां नैतिक शिक्षा की प्रेरणा देती हैं।
लेखिका की उर्दू , फारसी में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी। इसलिए उन्होंने उर्दू , फारसी पढ़ने से मना कर दिया। उनकी मां बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। वह मीरा के पदों को बहुत सुंदर तरीके से गाती थी तथा गीता का पाठ भी करती थी। लेखिका ने अपनी मां से बहुत कुछ सीखा।
अब लेखिका को स्कूल भेजने का समय आ गया था। इनको मिशनरी स्कूल में भेजा गया। वहां का वातावरण बिल्कुल ही अलग था। इसीलिए वहां उनका मन बिल्कुल नहीं लगा और उन्होंने स्कूल जाना बंद कर दिया।
फिर उनके पिता ने उन्हें क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में भेजा। जहां उन्हें सीधे पांचवी क्लास में प्रवेश मिला। यहां का माहौल लेखिका के घर के जैसा ही था। वहां पर एक मैस भी थी जहां बिना लहसुन प्याज का खाना मिलता था। यहां लेखिका का मन पढ़ाई में लगने लगा। वो छात्रावास में रहती थी। जहां एक कमरे पर चार लड़कियां एक साथ रहती थी।
छात्रावास में उनकी पहली सहेली सुभद्रा कुमारी चौहान बनी , जो उस समय सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। छात्रावास में सब सुभद्रा कुमारी चौहान को “कवयित्री” के नाम से जानते थे। यहां लेखिका भी अब कविताएं लिखने लगी थी। लेकिन वह किसी को इस बारे में बताती नहीं थी। लेकिन एक दिन सुभद्रा कुमारी चौहान जी को इस बारे में पता चल गया। तब उन्होंने छात्रावास के सभी लोगों को इस बारे में जानकारी दी।
इसके बाद उन दोनों की गहरी दोस्ती हो गई। अब दोनों मिल बैठ कर कविताओं की तुकबंदी करती थी। उन दिनों हिंदी का बहुत प्रचार प्रसार हुआ करता था। लेखिका अपनी कविताएं छपवाने के लिए “स्त्री दर्पण” पत्रिका में भेजने लगी। जब भी उस पत्रिका में उनकी कविताएं छपती। वो बहुत खुश हो जाती थी।
उसी वक्त गांधी जी ने भी असहयोग आंदोलन शुरू किया था और आनंद भवन इस असहयोग आंदोलन का केंद्र था। जहां पर खूब हिंदी भाषा का प्रचार प्रसार होता था। वहां पर अक्सर कवि सम्मेलन होते रहते थे और उन कवि सम्मेलनों में लेखिका भी भाग लेती थी। इन कवि सम्मेलनों के अध्यक्ष अयोध्या सिंह हरिओध , रत्नाकर , श्रीधर पाठक जी होते थे।
कवि सम्मेलनों में वो हमेशा ही प्रथम आती थी। लेखिका कहती कि उन्होंने 100 से अधिक मेडल जीते थे। एक बार लेखिका को एक चांदी का कटोरा इनाम के तौर पर मिला जिसमें बहुत ही सुंदर नक्काशी की गई थी। उन्होंने उस कटोरे को जब सुभद्रा कुमारी चौहान को दिखाया तो , उन्होंने खुश होकर लेखिका से उसी कटोरी में खीर खिलाने की फरमाइश कर दी।
गांधीजी अक्सर आनंद भवन आया करते थे और उनके छात्रावास की लड़कियां भी एक आना , दो आना बचा कर गांधीजी के असहयोग आंदोलन कोष में दान देती थी । जब लेखिका ने गांधीजी को वह चांदी का कटोरा दिखाया तो , गांधीजी ने उनसे वो कटोरा मांग लिया।
वापस घर आकर जब उन्होंने यह बात सुभद्रा कुमारी चौहान जी को बतायी , तो सुभद्रा कुमारी चौहान जी ने कहा कि खीर तो तुम्हें मुझे खिलानी ही पड़ेगी , चाहे तुम पीतल की कटोरी में खिलाओ या फूल की।
इसके कुछ समय बाद सुभद्रा कुमारी चौहान उनके हॉस्टल से चली गई। उसके बाद कोल्हपुर की जेबुन्निसा उनके साथ उनके कमरे में रहने आयी। जो उनके काम में बहुत मदद करती थी। जिस वजह से उन्हें अपनी कवितायें लिखने का खूब समय मिल जाता था। वह मराठी बोलती थी। इसलिए लेखिका को भी उनसे मराठी सीखने का मौका मिला।
छात्रावास में अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाली , अलग-अलग प्रदेशों से आयी सभी छात्राएं , एक साथ रहती थी। सबके बीच प्रेम , अपनापन व सौहार्द था। कहीं भी कोई वैमनस्य नहीं था। इसके बाद लेखिका आगे की पढ़ाई के लिए विद्यापीठ चली गई।
लेखिका कहती हैं कि मेरे बचपन के संस्कार ताउम्र मेरे साथ रहे। इसके बाद लेखिका अपने पड़ोसी जवारा के नवाब साहब के बारे में बताती है जिनकी नवाबी अंग्रेजों ने छीन ली थी और वो उनके पड़ोस में आकर रहने लगे।
नवाब साहब की बीवी को लेखिका ताई कहती थी और उनके बच्चे लेखिका की माँ को चाची जान कहते थे। दोनों परिवारों के बीच बहुत अच्छा खासा मेलजोल था। दोनों परिवार सभी त्यौहार आपस में मिलकर जुलकर मनाते थे। लेखिका के छोटे भाई का नाम भी “मनमोहन” नवाब साहेब की बीवी ने ही रखा था। जो आगे चलकर जम्मू और गोरखपुर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बने।
अंत में लेखिका कहती है कि उस समय लोगों के बीच अपनापन व प्रेम था। समाज में सौहार्द व एकता का वातावरण था। लोग मिलजुल कर रहते थे। और एक दूसरे के तीज-त्यौहार मनाते थे। अब तो ऐसा लगता है जैसे यह सब एक सपना था। लेखिका कहती हैं कि काश अगर आज भी वही माहौल होता , तो आज भारत की कहानी कुछ और ही होती ।
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