Sakhiyan Avam Sabad Class 9 Explanation
साखियाँ एवं सबद का भावार्थ कक्षा 9
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साखियाँ का अर्थ
कबीर दास की साखियाँ दोहा छन्द में लिखी गई हैं । सखियाँ का अर्थ हैं आँखों देखी। यह संस्कृति के “साक्षी” शब्द से लिया गया हैं जिसका अर्थ है साक्षात या आँखों से देखी हुई । कबीर की साखियां में भक्ति और ज्ञान के मार्ग को प्रमुखता दी गई है।
कबीरदास जी ने साखियाँ के माध्यम से यह बताया हैं कि मनुष्य को इस संसार में कैसे रहना चाहिए और कैसे वह उस ईश्वर को बिना किसी बाह्य आडंबरों के पा सकता हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर भक्ति में ही सच्चा सुख हैं और यह केवल ज्ञान से ही सम्भव हैं। साखियाँ में भक्ति और ज्ञान के उपदेशों को संकलित किया गया है।
कबीर की साखियाँ का भावार्थ
Sakhiyan Avam Sabad Class 9 Explanation
दोहा 1.
मानसरोवर सुभग जल , हंसा केलि कराहि।
मुकताफल मुकता चुगै , अब उड़ी अनत न जाही।।
भावार्थ –
यह एक दोहा छन्द हैं।
कैलाश पर्वत पर स्थित मानसरोवर झील का पानी एकदम साफ व निर्मल है जिसमें हंस (एक पक्षी) निवास करता है और वह उसी मानसरोवर झील में मोती के दानों को चुग कर बड़े आनंद से क्रीड़ा करते हुए अपने जीवन को बिताता है। वह उस मानसरोवर झील को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाना चाहता है।
कबीरदास जी का यह दोहा इसी संदर्भ को आधार मानकर लिख गया हैं। इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि जब व्यक्ति ईश्वर भक्ति में लीन हो जाता हैं तो उसका हृदय निर्मल हो जाता हैं यानि जब व्यक्ति हृदय रूपी मानसरोवर में , क्रीड़ा (खेल) रूपी साधना कर रहा हो और क्रीड़ा करते हुए वह आनंदित होकर भक्ति रूपी मोती चुग रहा हो तो , फिर वह प्रभु की भक्ति को छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहता हैं।
दूसरे शब्दों में , व्यक्ति का मन अगर ईश्वर भक्ति में लग जाता है तो फिर उसे सांसारिक वासनाओं , मोह माया व बाह्य आडंबरों से कोई लेना देना नहीं होता है। उसे तो ईश्वर भक्ति में ही आनंद व खुशी प्राप्त होती हैं और फिर वह ईश्वर भक्ति का मार्ग छोड़कर किसी अन्य मार्ग में जाना नहीं चाहता हैं। इस दोहे में शांत रस का प्रयोग किया गया हैं।
दोहा 2.
प्रेमी ढ़ूँढ़त मैं फिरौं , प्रेमी मिले न कोई।
प्रेमी कों प्रेमी मिले , सब विष अमृत होइ।।
भावार्थ –
कबीरदास जी कहते हैं कि वो अपने प्रेमी (ईश्वर) को सब जगह ढूढ़ते फिर रहे हैं लेकिन उन्हें उनके प्रेमी (ईश्वर) कही नहीं मिल रहे हैं।
कबीरदास जी कहते हैं कि अगर उन्हें उनके ईश्वर रुपी प्रेमी मिल जाए तो , उनके मन का सारा विष (यानि दुख , कठिनाई ) अमृत (सुख) में बदल जायेगा। यानि भगवान की भक्ति से ही सारे दुखों का नाश होता हैं और सुखों की प्राप्ति होती हैं।
दोहा 3.
हस्ती चढ़िए ज्ञान कौं , सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है , भूँकन दे झक मारि।।
भावार्थ –
कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को हमेशा ही ज्ञान रूपी हाथी पर , साधना रुपी आसन (गलीचा) बिछाकर सवारी करनी चाहिए।
कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार कुत्तों के भौंकने के बावजूद , हाथी उनकी परवाह किए बगैर अपनी मस्ती में आगे बढ़ता जाता है। उसी प्रकार इस संसार के लोग भी आपको अच्छा-बुरा बोलते रहेंगे। आप उनकी बातों को अनसुना कर , उन्हें अनदेखा कर , अपने कर्तव्यों का पालन सहज रूप से करते हुए आगे बढ़ते रहिए। एक दिन वो थक हार कर , स्वयं ही चुपचाप बैठ जाएंगे। यहां पर संसार की तुलना भौंकने वाले कुत्तों से की है।
दोहा 4.
पखापखी के कारने , सब जग रहा भुलान।
निरपख होई के हरि भजै , सोई संत सुजान।।
भावार्थ –
कबीरदास जी कहते हैं कि पक्ष और विपक्ष के चक्कर में इस दुनिया के सारे लोग आपस में लड़ रहे हैं और वो अपने इस झगड़े में ईश्वर को ही भूल गए हैं। जो व्यक्ति बिना भेदभाव के निष्पक्ष होकर , ईश्वर की भक्ति में मग्न रहता है। सही अर्थों में वही सच्चा भक्त और अच्छा इंसान होता है।
दोहा 5.
हिंदु मूआ राम कहि , मुसलमान खुदाई।
कहै कबीर सो जीवता , दुहूँ के निकटि न जाइ।।
भावार्थ –
उपरोक्त दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि हिंदू राम का नाम जपते हुए और मुसलमान खुदा का नाम जपते-जपते सारा जीवन बिता देते हैं और दोनों ही न ईश्वर और न ही खुदा को अच्छे से जान पाते हैं। यानि अंत में उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता हैं।
कबीरदास जी के अनुसार जो मनुष्य इन सब बातों से दूर रहता है , असल में वही जीवित हैं और उसका ही जीवन सार्थक है। अर्थात मनुष्य को जाती-पाँती ,धर्म सम्प्रदाय के भेदभाव से अपने आप को दूर रखना चाहिए। वही मनुष्य सही अर्थों पर जीता है जो ईश्वर की भक्ति पर लीन रहता है।
दोहा 6.
काबा फिरि कासी भया , रामहिं भया रहीम।
मोट चुन मैदा भया , बैठी कबीरा जीम।।
भावार्थ –
उपरोक्त दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि उस ईश्वर को मनुष्य चाहे काबा में जाकर ढूंढें या काशी जाकर या फिर राम के नाम से पुकारे या रहीम के नाम से , सभी एक समान ही है।
जिस प्रकार गेहूं को मोटा पीसने के बाद वह आटा बन जाता है और ज्यादा बारीक पीसने पर वह मैदा बन जाता है। लेकिन दोनों ही रूपों में गेहूं पीसने के बाद खाने के ही काम आता है। उसी प्रकार प्रभु को आप किसी भी नाम से बुलाओ , प्रभु एक ही हैं। फिर चाहे उसे काबा जाकर ढूंढो या काशी।
दोहा 7.
ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होई।
सुबरन कलस सुरा भरा , साधु निंदा सोई।।
भावार्थ –
उपरोक्त दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि ऊंचे कुल में जन्म लेने से मनुष्य ऊँचा नहीं होता हैं।बल्कि अपने कर्मों से ऊंचा होता हैं क्योंकि इंसान की असली पहचान तो उसके कर्मों से ही होती है ना कि उसके कुल से।
जिस प्रकार सोने के घड़े में रखी होने के बाद भी शराब , शराब ही रहेगी , अमृत नहीं बन जाएगी। और सोने के घड़े में होने के बाद भी साधु उसे बुरी चीज बता कर उसकी निंदा ही करेगा। उसी प्रकार ऊँचे कुल में जन्म लेने के बाद व्यक्ति अगर बुरे कर्म करता है तो लोग उसके कुल की अनदेखी कर , उसकी निंदा ही करेंगे यानी व्यक्ति अपने कर्मों से ही महान बन सकता है।
कबीर के सबद का भावार्थ
Kabir Ke Sabad Explanation
सबद में संत महात्माओं के भजनों व कथनों को संजोया गया हैं।
दोहा 2.
मोकों कहाँ ढ़ूँढ़े बंदे , मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद , ना काबे कैलास में।
ना तो कौने क्रिया -कर्म में , नहीं योग वैराग में।
खोजी होय तो तुरते मिलिहों , पल भर की तलास में।
कहें कबीर सुनो भाई साधो , सब स्वासों की स्वास में।
भावार्थ –
इन पंक्तियों में कबीर दास जी कहते हैं कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त हैं। लेकिन अपनी अज्ञानता वश मनुष्य ईश्वर की खोज में जीवन भर भटकता रहता है। कभी वह मंदिर जाता है तो कभी मस्जिद पहुंच जाता हैं। कभी काबा में तो , कभी कैलाश में ईश्वर को ढूढ़ता रहता हैं।
और कभी उस ईश्वर को पाने के लिए पूजा-पाठ , तंत्र मंत्र करता हैं या फिर साधु का चोला पहन कर वैराग्य धारण कर लेता हैं। और इस प्रकार वह अपना सारा जीवन ईश्वर की खोज में व्यर्थ गंवा देता है। लेकिन ये सब बाह्य आडंबर या दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं है।
कबीरदास जी के अनुसार भगवान तो मनुष्य के अंदर उसकी आत्मा में ही बसते हैं। वह हर जीव के भीतर ही विध्यमान हैं। उनसे मिलने के लिए आपको किसी बाहरी आडंबर की जरूरत नहीं है और न ही कही जाने की। अगर मनुष्य सिर्फ अपने अंदर ही झांककर देखे तो , उसे ईश्वर पल भर में मिल जायेंगे।
यानि सरल शब्दों में इसका अर्थ यह हैं कि ईश्वर कण-कण में निवास करता है।उसको ढूढ़ने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं हैं। बस आपको सच्चे मन से उसे देखना होता है।
दोहा 2.
संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाँनी , माया रहै न बाँधी॥
हिति चित्त की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा।
जोग जुगति काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदित भया तम खीनाँ॥
भावार्थ –
इन पंक्तियों में कबीरदास जी ने ज्ञान के महत्व को बड़ी सरलता से समझाया है। उन्होंने ज्ञान की तुलना आँधी से करते हुए कहा है कि जिस प्रकार आंधी आती है तो कच्ची झोपड़ी की सभी दीवारें अपने आप गिर जाती हैं और वह बंधन मुक्त हो जाती हैं। उसी प्रकार जब व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है तो उसका मन सारे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता हैं।
कबीरदास जी आगे कहते हैं कि झोपड़ी की दीवारें गिरने के बाद जब छत को गिरने से रोकने वाला लकड़ी का टुकड़ा जो खम्भे को जोड़ता है , वह भी टूट जाता है तो छत भी स्वत: ही गिर जाती है और छत के गिरते ही झोपड़ी के अंदर रखा हुआ सारा सामान नष्ट हो जाता है।
उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त होते ही मनुष्य सभी विकारों लोभ , मोह , लालच , जाति पाँति , स्वार्थ आदि से मुक्त हो जाता है। परंतु जिनका घर मजबूत होता है यानि जिनके मन में कोई छल-कपट नहीं होता , उन पर आंधी-तूफान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता हैं। अर्थात ज्ञानी व्यक्ति को कोई भी सांसारिक चीज डगमगा नहीं सकती हैं।
आंधी के बाद जब बरसात होती है तो , वह सारी गंदी चीजें को धोकर साफ कर देती है। उसी प्रकार ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद मनुष्य का मन निर्मल हो जाता हैं और फिर वह ईश्वर भक्ति में लीन हो जाता हैं।
कबीर का जीवन परिचय
कबीरदास जी के जन्म और मृत्यु के बारे में अनेक मत हैं। एक मत के अनुसार उनका जन्म सन 1398 में काशी में हुआ था। उन्होंने किसी प्रकार की विधिवत शिक्षा हासिल नहीं की। मगर साधु-संतों की संगत व घुमक्कड़ी जीवन जीने की वजह से , जो ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ। वहीं उनकी रचनाओं में संकलित हैं।
कबीरदास जी निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। और भक्तिकालीन कवि थे। बाह्य आडंबरों व सामाजिक कुरीतियों पर उन्होंने सीधा कटाक्ष किया हैं।
कबीरदास जी की अधिकांश साखियां दोहे छंद में लिखी गई हैं। लेकिन कुछ साखियाँ सोरठा व चौपाइयों छंद में भी लिखी है। साखियों में भक्ति और ज्ञान के उपदेशों को संग्रहित किया गया है। कबीर की भाषा साधुक्क्ड़ी थी जिसमें पूर्वी हिंदी , राजस्थानी , पंजाबी , ब्रज , अवधी आदि भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। उनकी मृत्यु सन 1518 में मगहर में हुई थी।
कबीरदास जी की रचनाओं
- साखी
- सबद
- रमैनी
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