Mati Wali Class 9 Summary :
Mati Wali Class 9 Summary
माटी वाली कक्षा 9 पाठ का सारांश
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इस कहानी के लेखक विद्यासागर नौटियाल जी हैं। टिहरी बाँध बनने के बाद जब पूरा शहर पानी में डूब गया , तब सरकार द्वारा वहां के लोगों को दूसरी जगहों में विस्थापित किया गया था । यह कहानी उन्ही विस्थापितों के दर्द को बयां करती हैं। यह कहानी एक ऐसी गरीब और बुजुर्ग महिला की है जिसके पास न जमीन हैं और न ही पक्का मकान। यह बुजुर्ग महिला टिहरी शहर (पुराना टिहरी शहर , गढ़वाल , उत्तराखंड ) के एक मोहल्ले में घर-घर जाकर लाल मिट्टी देने का काम करती थी। और वही उसकी रोजी रोटी का मुख्य साधन था। लोग उसे “माटी वाली” के नाम से जानते थे।
दरअसल उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में खाना पकाने के बाद लोग हर रोज अपने चूल्हे की लिपाई पुताई लाल मिट्टी से करते हैं। मिट्टी से बने घरों के आंगनों और दीवारों की पुताई भी लाल मिट्टी में गोबर मिलाकर की जाती हैं। जो आंगन व दीवारों की साफ सफाई के साथ उन्हें मजबूती भी प्रदान करती है।और कीड़े मकौड़ों को भी घर-आंगन से दूर रखती हैं।
यह माटीवाली भी बरसों से माटखान (एक ऐसी जगह जहां पर लाल मिट्टी पाई जाती है और उसी जगह से लाल मिट्टी खोदकर घरों तक पहुंचाई जाती है। उसे माटखान कहते हैं) से लाल मिट्टी खोदकर लाती हैं। और मोहल्ले के प्रत्येक घर तक उस मिट्टी को पहुंचाती है। इसीलिए मोहल्ले के सभी लोग उस माटीवाली से बहुत अच्छी तरह से परिचित थे।
लेखक आगे कहते है कि अगर वह माटीवाली एक दिन भी उन घरों में मिट्टी ना पहुंचाए तो , लोगों को अपने रसोईघरों के चूल्हों की लिपाई-पुताई में मुश्किल हो जाती । साल- दो साल में लोग जो अपने घरों की दीवारों की मिट्टी को गोबर के साथ मिलकर लिपाई-पुताई करते हैं उसके लिए भी लाल मिट्टी की ही जरूरत पड़ती हैं।
टिहरी शहर के अंदर कोई भी माटखान नहीं था । दरअसल पुराना टिहरी शहर भागीरथी और भीलांगना नदियों के तट पर बसा था जिस वजह से यहां की मिट्टी रेतीली थी और रेतीली मिट्टी से पुताई नहीं की जा सकती है। इसीलिए शहर के सभी लोग और शहर में आने वाले किराएदार तक माटीवाली के ग्राहक बन जाते थे। घर-घर माटी बेचने वाली यह महिला नाटे कद की एक हरिजन बुढ़िया थी।
शहर के सभी लोग माटीवाली और उसके कंटर (एक तरह का टिन का बर्तन) को अच्छी तरह से पहचानते थे। वह पुराने कपड़ों को मोड़कर एक गोल डिल्ला (कपड़ों का एक मोटा गद्दा) बनाकर पहले उसे अपने सिर पर रखती थी। और फिर उसके ऊपर माटी से भरा कंटर रखती थी। जिसमें कभी भी ढक्क्न नहीं लगा होता था। दरअसल माटीवाली कंटर में मिट्टी भरने से पहले ही उसका ढक्कन निकाल देती थी ताकि उसे मिट्टी को निकालने व भरने में आसानी हो।
हर रोज की तरह एक दिन माटीवाली लाल मिट्टी लेकर आयी और उसने मोहल्ले के आखिरी घर की खोली (दरवाजे) में पहुंचकर अपने दोनों हाथों की मदद से सिर पर रखा हुआ लाल मिट्टी का कंटर जमीन में उतारा। तभी सामने के घर से नौ-दस साल की एक छोटी सी बच्ची कामिनी दौड़ती हुई उसके पास आई और माटीवाली से बोली कि उसकी मां ने उसे बुलाया है।उसकी बात सुनकर माटीवाली ने उससे कहा कि वह थोड़ी देर में आएगी।
तभी उस घर की मालकिन ने (माटीवाली ने जिस घर के आगे अपना कंटर उतारा था) माटीवाली को कंटर की मिट्टी को आँगन के एक कोने में उड़ल देने को कहा और साथ में ही उसने माटीवाली को भाग्यवान बताया क्योंकि वह ठीक चाय पीने के समय उसके घर पर पहुंची थी। यह कहकर मालकिन ने दो रोटियों माटीवाली को पकड़ा दी और खुद दुबारा रसोईघर में चली गई।
माटीवाली ने मालकिन को जैसे ही अंदर जाते देखा तो उसने फटाफट अपने सिर में रखे कपड़े के डिल्ले को नीचे उतारा और उसके अंदर से एक पुरानी चादर निकाल कर उसके एक कोने में एक रोटी बांध दी।और मालकिन को अपने पास आता देख रोटी खाने का नाटक करने लगी। घर की मालकिन पीतल के एक गिलास में उसके लिए चाय लेकर आयी और उसे देते हुए बोली सब्जी नहीं हैं। इसीलिए वह चाय के साथ ही रोटी खा ले।
माटीवाली पीतल के गिलास को देखकर मालकिन से कहती हैं कि उसने अभी तक पीतल के गिलास संभाल कर रखे हैं। जबकि आजकल तो पूरे बाजार में या किसी भी घर में पीतल के गिलास दिखाई नहीं देते हैं। वह व्यापारियों को कोसते हुए कहती हैं कि ये व्यापारी लोग हमारे घरों से बहुत ही सस्ती कीमत में तांबे , कांसे और पीतल के बर्तन खरीद कर ले जाते हैं। जबकि बाजार में इनकी बहुत ऊंची कीमत है। अब सभी लोगों के घरों में स्टील , कांच व चीनी मिट्टी के ही बर्तन दिखाई देते हैं।
तभी मालकिन माटीवाली से कहती है कि अपनी चीज से वाकई में बहुत मोह होता है। वह तो यह सोच कर पागल हो जाती है कि वह इस उम्र में इस शहर को छोड़कर कहां जाएंगे। माटीवाली मालकिन को जबाब देते हुए कहती हैं कि ठकुराइनजी जो जमीन जायदाद के मालिक हैं। वो तो कहीं ना कहीं चले ही जायेंगे। लेकिन मेरा क्या होगा। मेरी तरफ तो देखने वाला कोई भी नहीं है।
चाय खत्म कर माटीवाली ने अपने एक हाथ में अपना कपड़ा उठाया और दूसरे हाथ से खाली कंटर और खोली से बाहर निकलकर दूसरे घर (कामिनी के घर) में चली गई। कामिनी की माँ ने भी उसे अगले दिन मिट्टी लाने का आदेश देने के साथ ही दो रोटियां पकड़ा दी। जिससे उसने कपड़े के दूसरे छोर में बांध लिया। वो इन तीनों रोटियों को अपने पति के लिए ले जा रही थी जो घर में भूखा उसके आने का इंतजार कर रहा था।
उसका गांव शहर के इतनी दूरी पर था कि अगर वह तेज कदमों से भी चले तो , उसे घर पहुंचने में एक घंटा लग जाता था। वह रोज सुबह अपने घर से माटखान मिट्टी खोदने निकल जाती थी। फिर मिट्टी खोदकर लोगों के घरों तक पहुंचाने और वापस घर पहुंचते-पहुंचते उसे रात ही हो जाती थी।
घर लौटते वक्त वह मन ही मन सोचती जा रही थी कि आज वह अपने पति को रोटियों के साथ प्याज की सब्जी बनाकर देगी। इसीलिए वह अपनी आमदनी से एक पाव प्याज खरीद कर घर पहुंची। घर पहुंच कर उसे पता चला कि उसका पति इस दुनिया को छोड़ कर जा चुका हैं। लेखक आगे कहते है कि टिहरी बांध पुनर्वास के अधिकारी ने उससे उसके घर का पता पूछा और साथ में ही उसे तहसील से अपने घर का प्रमाण पत्र लाने को कहा। तब माटीवाली ने अधिकारी को बताया कि उसके पास ना तो घर है और ना ही जमीन है। उसकी तो पूरी जिंदगी लोगों के घरों में मिट्टी देते-देते गुजर गई।
वह अधिकारी से पूछ रही थी कि बांध बनने के बाद वह क्या खाएगी , क्या करेगी और कहां रहेगी। अधिकारी उसे जवाब देते हुए कहता हैं कि यह बात तो उसे खुद ही तय करनी पड़ेगी। अधिकारी उसे बताता है कि टिहरी बांध की दो सुरंगों को बंद कर दिया गया है जिससे शहर में पानी भरने लगा है। इसीलिए पूरे शहर में आपाधापी मची हुई है। लोग अपने घरों को छोड़कर दूसरी सुरक्षित जगहों पर जा रहे हैं। शहर के सारे श्मशान घाट डूब चुके हैं।
माटीवाली अपनी झोपड़ी के बाहर अकेले बैठकर गांव में आने जाने वाले हर व्यक्ति से एक ही बात कहे जा रही थी कि “गरीब आदमी का शमशान नहीं उजड़ना चाहिए”। माटीवाली अपनी झोपड़ी , अपने पति व अपने माटखान को खो चुकी थी। अब उसे यह चिंता खाये जा रही थी कि वह अपना आगे का जीवन कैसे यापन करेगी।
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