Ek Kutta Aur Ek Maina Class 9 ,
Ek Kutta Aur Ek Maina Class 9 Summary Hindi kshitij Bhag 1 Chapter 8 , एक कुत्ता और एक मैना का सारांश कक्षा 9 हिंदी क्षितिज भाग 1 अध्याय 8
Ek Kutta Aur Ek Maina Class 9 Summary
एक कुत्ता और एक मैना का सारांश कक्षा 9
Note –
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इस पाठ के लेखक हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी हैं। लेखक ने इस पाठ के माध्यम से गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर जी का पशु – पक्षियों के प्रति प्रेम व संवेदनशीलता के बारे में विस्तार से बताया हैं।
यह एक निबंध है और यह पूरा निबंध गुरुदेव का पशु पक्षियों के प्रति उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता हैं। लेखक कहते हैं कि हम जितना पशु पक्षियों से प्रेम करते हैं। पशु-पक्षी भी उस प्रेम के बदले दुगुना प्रेम हमें वापस लौटाते हैं और उनमें भी मानवीय गुण जैसे दया , करुणा , संवेदनशीलता मौजूद होते हैं।
भले ही वो बोल कर हमसे अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकते हैं लेकिन वो इनको महसूस भी करते हैं और अपने हावभावों से हमें जतलाते भी हैं। और यही बात लेखक ने एक कुत्ते , कौवे व एक मैना और कुछ घटनाओं के माध्यम से हमें समझाने का प्रयास किया हैं। यह पाठ हमें धरती पर रहने वाले सभी जीव जंतुओं से प्रेम करने की प्रेरणा देता है।
Ek Kutta Aur Ek Maina Class 9 Summary
पाठ की शुरुआत करते हुए लेखक कहते हैं कि कुछ दिन पहले गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर के दिमाग में यह बात आयी कि कुछ दिन शांतिनिकेतन छोड़ कर कहीं और रहा जाए। क्योंकि वो बीमार थे और कमजोर हो चुके थे। इसीलिए थोड़ा आराम करना चाहते थे। शांतिनिकेतन में भीड भाड़ व और गुरुदेव से मिलने जुलने , आने-जाने वालों की वजह से यह संभव नहीं था।
इसीलिए उन्होंने एकांत में रहने के लिए श्री निकेतन का एक तीन मंजिला मकान चुना। जिसके सबसे ऊपर वाले फ्लोर में वो रहने चले गए। हालांकि लोहे की घुमावदार सीढ़ियाँ होने के कारण उनसे ऊपर चढ़ा नहीं जा रहा था। लेकिन जैसे तैसे वो ऊपर पहुंच गए।
लेखक आगे कहते हैं कि छुट्टियों के दिन लोगों के बाहर चले जाने के कारण उन्होंने सपरिवार गुरुदेव के दर्शन करने का निश्चय किया और वो गुरुदेव से मिलने चले गए। लेखक जब उनके पास पहुँचे तो उस समय गुरुदेव अकेले कुर्सी पर बैठे प्रसन्नचित्त मुद्रा में अस्त होते सूर्य को देख रहे थे।
लेखक को देखते ही गुरुदेव बोले “दर्शनार्थी” आ गए। गुरुदेव ने उन्हें दर्शनार्थी इसलिए कहा क्योंकि आश्रम में जब भी गुरुदेव से मिलने कोई आता तो , लेखक गुरुदेव के पास जाकर बोलते थे कि दर्शनार्थी आए हैं। लेखक आगे कहते हैं गुरुदेव ने उनसे कुशलक्षेम भी पूछी ।
ठीक उसी समय शान्ति निकेतन से गुरुदेव का कुत्ता उनके पास आकर पूँछ हिलाने लगा। गुरुदेव ने जैसे ही उसकी पीठ पर हाथ फेरा , कुत्ते का रोम रोम खिल उठा यानि कुत्ता खुश हो गया। तभी गुरुदेव आश्चर्य से कहने लगे कि इसे कैसे मालूम हुआ कि मैं यहाँ हूँ।
गुरुदेव आगे कहते हैं कि किसी ने कुत्ते को रास्ता भी नहीं बताया और ना हीं किसी ने कुत्ते को बताया कि मैं यहां पर हूँ। फिर भी ये दो मील अकेले चलकर यहां आया हैं ।
बाद में इसी कुत्ते के ऊपर गुरुदेव ने “आरोग्य पत्रिका” में एक कविता भी लिखी थी। कविता में गुरुदेव ने बताया कि वह कुत्ता प्रतिदिन उनके आसन के पास एकदम शांत भाव से तब तक बैठा रहता था , जब तक गुरुदेव अपने हाथों से उसे स्पर्श नहीं कर लेते।
गुरुदेव के स्पर्श करने भर से ही उसका रोम रोम खुशी से भर उठता था। कुत्ता बोल नहीं सकता हैं मगर वह आनंद को महसूस कर सकता हैं। वह भी इन्सान के प्रेम को समझता हैं। इस पूरी दुनिया में इन्सान का सच्चा परिचय उसका प्रेम ही हैं।
लेखक यहां पर एक और धटना का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि जब गुरुदेव की चिताभस्म (व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके चिता की राख) को कोलकाता से शांतिनिकेतन आश्रम में लाया गया।
तब वह कुत्ता भी अन्य लोगों के साथ उत्तरायण तक गया और कुछ देर चिताभस्म के कलश के पास बड़े ही शांत भाव से बैठा रहा। इसे लेखक सामान्य धटना के बजाय विश्व की महानतम धटनाओं में से एक मानते हैं।
गुरुदेव अपने आश्रम में आने वाले पशु पक्षियों के बारे में भी खूब जानकारी रखते थे। लेखक यहां पर कुछ समय पीछे की एक और धटना को याद करते हुए कहते हैं कि एक दिन गुरुदेव एक अध्यापक के साथ बगीचे में टहलते हुए उनसे बातें किये जा रहे थे। और साथ में ही बगीचे के हर फूल-पत्ते को बड़े ध्यान से देख रहे थे।
तभी अचानक गुरुदेव ने उनसे पूछा कि आजकल आश्रम के सारे कौवे कहाँ चले गए हैं ? कुछ दिन से कोई भी कौवा नहीं दिखाई दे रहा हैं और न ही उनकी आवाज सुनाई पड़ रही है।
इस बात की ओर लेखक और उन सज्जन , दोनों का ध्यान ही नहीं गया था। वैसे भी लेखक कौवों को सर्वव्यापी पक्षी समझते थे। लेखक को पहली बार पता चला कि कौवे और सभी पक्षी कभी-कभी प्रवास को चले जाते हैं। लगभग एक सप्ताह बाद फिर से कौवे दिखाई दिए।
एक और धटना का जिक्र यहां पर लेखक करते हुए कहते हैं कि एक सुबह जब वो गुरुदेव से मिलने गए थे तो उस समय वहाँ एक लँगड़ी मैना (एक टांग वाली) फुदक रही थी। गुरुदेव ने लेखक को बताया कि यह यूथभ्रष्ट (अपने दल या ग्रुप से निकाली हुए) मैना है जो यहाँ आकर रोज फुदकती है।
गुरुदेव को उसकी चाल में एक करुण भाव दिखाई देता था।लेखक कहते हैं कि अगर गुरुदेव न बताते तो वो मैना के करुण भाव को कभी समझ व देख ही नही पाते। लेखक समझते थे कि मैना करुण भाव दिखाने वाला पक्षी नहीं है । वो मानते थे कि मैना तो दूसरों पर अनुकंपा (दया) दिखाती है।
इसके पीछे एक कारण भी लेखक ने बताया हैं। लेखक कहते हैं कि तीन चार वर्षों से वो जिस मकान में रहते हैं। उस मकान के चारों ओर चार बड़े बड़े सुराख़ हैं। उनमें से एक सुराख़ में एक मैना दंपत्ति ने अपना घोंसला बना लिया। जहां पर वो अंडे देते हैं और अण्डों से बच्चे निकलने के बाद उनका पालन पोषण करते हैं। और फिर बच्चों के बड़े हो जाने पर , वो घोंसला छोड़ देते हैं। और अगले साल फिर से दुबारा वही अपना घोंसला बनाते हैं। यही क्रम हर साल चलता रहता हैं।
लेखक की परेशानी यह थी कि जब भी वो वहां पर अपना घोंसला बनाते थे , तो घोंसला बनाने के लिए फ़टे पुराने कपड़े , घास के तिनके , कागज के टुकड़े गोबर कीचड़ , मिट्टी आदि लेकर आते थे। जो लेखक के कमरे में भी गिर जाता था जिसके कारण उनका घर खराब हो जाता था और गंदी बदबू भी आने लगती थी।
इसीलिए एक बार चिड़िया और उसके बच्चों के उड़ जाने के बाद लेखक ने उस सुराख़ को ईट से पाट दिया। लेकिन अगली बार फिर मैना दंपत्ति ने वहां एक छोटा सा छेद (खाली जगह) देखकर वही पर अपना घोंसला बनाना शुरू कर दिया।
अब पति पत्नी (मैना दंपत्ति) जब भी कोई तिनका लेकर आते तो उनके भाव देखने लायक होते। वो नाचने गाने और आपस में बातें करने लगते थे। उनके (मैना दंपत्ति के ) हाव भाव देखकर ऐसा लगता था कि मानो वो हमारे घर पर नहीं , बल्कि हम (लेखक) उनके घर पर उनकी दया से रह रहे हों।
इसी धटना के आधार पर लेखक सोचते थे कि मैना करुण भाव दिखाने वाला पक्षी नहीं है। लेखक को विश्वास नहीं था कि सच में मैना के अंदर करुण भाव मौजूद हो सकता हैं ।लेकिन गुरुदेव की बात पर जब लेखक ने उस लंगड़ी मैना को ध्यान से देखा तो पाया कि सच में उसके मुख पर करुणभाव था।
अब लेखक उस लंगड़ी मैना के बारे में अनुमान लगा रहे हैं कि शायद वह विधुर (जिसकी पत्नी मर गई हो ) मैना हो या हो सकता हैं कि इसे किसी ने स्वयंवर-सभा के युद्ध में परास्त किया हो या फिर ये विधवा मैना (जिसकी पति मर गया हो ) हो जो पति को खोकर एकांत में विहार कर रही हो।
लेखक आगे कहते हैं कि इस लंगड़ी मैना के ऊपर गुरुदेव ने बाद में एक कविता भी लिखी थी । उस कविता में उन्होंने लिखा था कि “पता नहीं किस कारण से वह मैना अपने दल से अलग रह रही है। वह प्रतिदिन संगीहीन (कोई साथी न होना) होकर कीड़ों का शिकार करती है और उनके बरामदे में आकर कूद कूद कर चहलकदमी करती है।
अब वह मुझसे (गुरुदेव) डरती भी नहीं हैं। उसे उसके किस अपराध का दंड मिला है। क्योंकि कुछ ही दूरी पर बहुत सी मैनायें शिरीष (एक प्रकार का फूल) के वृक्ष पर हंस खेल रही हैं। पर यह सबसे अलग , सहज मन से आहार चुगती हुई , झड़े हुए पत्तों पर कूदती फिर रही है। इसकी चाल में दुःख व वैराग्य का भाव भी नहीं हैं। इस कविता में गुरुदेव मैना की मनस्थिति को समझने का प्रयास करते हैं।
गुरुदेव की इस कविता (लंगड़ी मैना के ऊपर लिखी) को अब , जब लेखक पढ़ते हैं तो , उस मैना की करुण मूर्ति उनकी आँखों के सामने घूम जाती है। लेखक कहते हैं कि गुरुदेव की सूक्ष्म संवेदनशीलता और मर्म दृष्टि उस मैना के मर्मस्थल तक पहुँच गई। लेकिन मेरी आँखें वहां तक नहीं पहुँच पायी।
लेखक कहते हैं एक दिन वह मैना उड़ गई।और रात का अँधियारा होते ही वह दूर पेड़ की डाली पर जाकर बैठ गई। लेखक को उसका गायब होना भी अब करुणाजनक लग रहा है। यानी उसकी अनुपस्थिति से लेखक दुखी हैं।
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