Gram Shree Class 9 Explanation ,
Gram Shree Class 9 Explanation Hindi Kshitij Bhag 1 Chapter 13 , ग्राम श्री कक्षा 9 का भावार्थ /अर्थ हिन्दी क्षितिज भाग 1 अध्याय 13 ,
Gram Shree Class 9 Summary
ग्राम श्री कक्षा 9 का सारांश
Note –
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“ग्राम श्री का अर्थ होता हैं गाँव की शोभा”। इस कविता के कवि सुमित्रानंदन पंत जी हैं जो एक छायावादी कवि माने जाते हैं। जिन्होंने प्रकृति व हरियाली से संबधित अनेक सुंदर कविताएं लिखी हैं।अपनी कविताओं में उन्होंने प्रकृति का मानवीकरण बहुत शानदार ढंग किया हैं।
कवि इस कविता में कड़ाके की ठंड के बाद ऋतुराज बसंत के आगमन से प्रकृति में होने वाली हलचल के बारे में बात कर रहे हैं। बसंत ऋतु के आगमन के साथ ही धरती फिर से हरी-भरी होने के साथ ही सजने सँवरने लगती है। प्रकृति का आंचल अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों , फलों से खिल उठता है।
आम , लीची के पेड़ों में बौंर आने लगती है तो आडू , खुमानी के पेड़ रंग-बिरंगे फूलों से भर जाते हैं। रंग बिरंगी सब्जियां खेतों की शोभा बढ़ाने लगती हैं। मटर , अरहर के पौधों में फलियां आने लगती हैं तो अमरूद , संतरे , मौसंबी जैसे फल पक कर तैयार हो जाते हैं।
बेर की झाड़ियां बेरों से भर जाती हैं तो आंवले के पेड़ में छोटे-छोटे नए आंवले लगने शुरू हो जाते हैं। तितलियां फूल- फूल मंडराती फिरती हैं जो प्रकृति की शोभा में चार चांद लगा देती है।
सुमित्रानंदन पंत जी ने यहां पर प्रकृति का बहुत खूबसूरत वर्णन किया है। कहीं-कहीं पर प्रकृति का मानवीकरण भी किया है। इस पूरे काव्य खंड में अलंकारों का बहुत शानदार प्रयोग किया गया है।
Gram Shree Class 9 Explanation
ग्राम श्री कक्षा 9 का भावार्थ
काव्यांश 1 .
फैली खेतों में दूर तलक
मखमल की कोमल हरियाली ,
लिपटीं जिससे रवि की किरणें
चाँदी की सी उजली जाली !
तिनकों के हरे हरे तन पर
हिल हरित रुधिर है रहा झलक ,
श्यामल भू तल पर झुका हुआ
नभ का चिर निर्मल नील फलक !
भावार्थ –
कवि खेतों में फैली हरियाली को देखकर कहते हैं कि जहां तक नजर जाती है वहां तक खेतों में मखमल के जैसी हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही हैं और उस हरियाली के ऊपर जब सूरज की किरणें पड़ती है तो ऐसा लगता है मानो उससे कोई चांदी की जाली लिपट गई हो या उसके ऊपर कोई चांदी की जाली बिछा रखी हो।
और नये-नये उगे हरे-हरे घास के तिनकों व पत्तियों के ऊपर पड़ी ओस की बूदों तो ऐसी प्रतीत होती हैं मानो जैसे हरा रुधिर यानी खून उनमें बह रहा हो। यहां पर घास के हरे तिनकों का मानवीकरण किया गया है।
पूरी प्रकृति को निहारने पर कवि को ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि धरती के सांवलेपन को सदा आकाश में छाई रहने वाली निर्मल स्वच्छ नीलिमा ने ढक रखा हो। यानि हरी भरी धरती के ऊपर फैला नीला आकाश ऐसा प्रतीत हो रहा हैं मानो जैसे उसने धरती के ऊपर अपना आँचल फैला रखा हो।
काव्यांश 2.
रोमांचित सी लगती वसुधा
आई जौ गेहूँ में बाली,
अरहर सनई की सोने की
किंकिणियाँ हैं शोभाशाली !
उड़ती भीनी तैलाक्त गंध
फूली सरसों पीली पीली ,
लो , हरित धरा से झाँक रही
नीलम की कलि , तीसी नीली !
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि खेतों पर खड़ी फसलों व रंग बिरंगे फूलों से सजी धरती के सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हैं। वो कहते हैं कि इस हरियाली को देखकर धरती भी रोमांचित हैं , अति प्रसन्न है क्योंकि अब जौ और गेहूं में बालियां आ चुकी हैं।
अरहर (एक प्रकार की दाल) और सनई (एक रेशेदार पौधा , जो रस्सी बनाने के काम आता हैं) के पौधों में खिले पीले फूल व कलियों को देखकर ऐसा लग रहा हैं मानो जैसे प्रकृति ने सोने की करधनी (कमर में बांधने का आभूषण) बांध रखी हो जो हवा से हिल कर मधुर आवाज में बज रही हैं।
कवि आगे कहते हैं कि खेतों में पीली-पीली सरसों अब पूरी तरह से फूल चुकी है जिसमें से निकलने वाली तेल की हल्की-हल्की गंध हवा में फैल रही है। तीसी (अलसी का पौधा) के नीले-नीले खिले हुए फूलों को देख कर कवि को ऐसा लग रहा है मानो नीलम (रत्न) की कलियां हरी भरी धरती से झांक रही हो यानि अलसी का पौधों पर खिले नीले फूल बहुत सुंदर दिखाई दे रहे हैं।
काव्यांश 3.
रंग रंग के फूलों में रिलमिल
हंस रही सखियाँ मटर खड़ी ,
मखमली पेटियों सी लटकीं
छीमियाँ, छिपाए बीज लड़ी !
फिरती है रंग रंग की तितली
रंग रंग के फूलों पर सुंदर ,
फूले फिरते ही फूल स्वयं
उड़ उड़ वृंतों से वृंतों पर !
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि खेतों में नीले व सफेद रंग के फूलों से सजे मटर के पौधों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे दो सखियां आपस में मिलजुल कर खिल-खिला रही हों। कवि ने यहाँ पर मटर का मानवीकरण किया गया है।
आगे कवि कहते हैं कि मटर के बेल पर लगी फलियां ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानो जैसे मटर के पौधों पर कोई मखमली पेटियों (डिब्बा) लटक रही हो , जिनके अंदर बीजों की लड़ियों छिपाई गई हों।
बसंत ऋतु के आगमन से खेतों पर खिले रंग-बिरंगे फूलों पर सुंदर-सुंदर रंग-बिरंगी तितलियां मंडरा रही हैं और जब तेज हवा चलती है तो फूलों की डंठलों (टहनी) जोर जोर से हिलती हुई ऐसा प्रतीत होती है मानो स्वयं फूल , उड़ – उड़ कर उनमें जाकर बैठ रहे हैं यानि फूल भी खुश होकर मस्ती में झूम रहे हैं।
काव्यांश 4.
अब रजत स्वर्ण मंजरियों से
लद गई आम्र तरु की डाली,
झर रहे ढ़ाक , पीपल के दल ,
हो उठी कोकिला मतवाली !
महके कटहल, मुकुलित जामुन ,
जंगल में झरबेरी झूली ,
फूले आड़ू , नीम्बू , दाड़िम
आलू , गोभी , बैगन , मूली !
भावार्थ –
वसंत ऋतु के आगमन के साथ ही आम , लीची आदि के पौंधों में बौर आने लगती है और आडू , खुमानी आदि के पेड़ों में रंग बिरंगी फूल खिलने लगते हैं जो प्रकृति के सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं।
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि आम के पेड़ की डाली -डाली सफेद व पीले रंग के बौरों (मंजरियों) से लद गई हैं। पलाश (ढ़ाक) के फूल व पीपल के पत्ते गिरने लगे हैं। यह सब देख कर कोयल भी मस्त होकर गा रही हैं।
कटहल महक रहा हैं और उसकी भीनी भीनी खशबू हवा में फैल रही हैं। मगर जामुन अभी अधखिला ही हैं। और जंगल में बेर की झड़ियों में बेर झूलने लगे है। आड़ू , नीम्बू , दाड़िम में फूल आने लगे हैं। और आलू , गोभी , बैगन , मूली भी फूल रही हैं।
काव्यांश 5.
पीले मीठे अमरूदों में
अब लाल लाल चित्तियाँ पड़ीं ,
पक गये सुनहले मधुर बेर ,
अँवली से तरु की डाल जड़ी!
लहलह पालक, महमह धनिया ,
लौकी औ’ सेम फलीं , फैलीं
मखमली टमाटर हुए लाल ,
मिरचों की बड़ी हरी थैली !
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि अमरुद पककर पीले व मीठे हो चुके हैं जिनमें लाल-लाल चित्तियाँ (धब्बे) पड़ चुकी हैं। बेर भी पककर सुनहरे व मीठे हो चुके हैं और आंवले के पेड़ में पास लगे छोटे – छोटे आंवले के दाने ऐसे प्रतीत हो रहे मानो जैसे किसी आभूषण में नग जड़ दिए हो।
पालक लहलहा रहा है तो धनिया पूरे वातावरण में खुशबू बिखेर रही है। लौकी और सेम की बेले हर रोज फैलती ही (बढ़ती ही ) जा रही हैं। और टमाटर भी पककर एकदम मखमल जैसे लाल हो गए हैं और मिर्च के पौधों पर लगी हरी-हरी मिर्च तो ऐसी लग रही है मानो किसी ने हरे-हरे थैले पौधों पर लटका दिया हों।
काव्यांश 6.
बालू के साँपों से अंकित
गंगा की सतरंगी रेती
सुंदर लगती सरपत छाई
तट पर तरबूजों की खेती ;
अँगुली की कंघी से बगुले
कलँगी सँवारते हैं कोई ,
तिरते जल में सुरखाब , पुलिन पर
मगरौठी रहती सोई !
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि गंगा नदी के किनारे खड़े होकर गंगा नदी के तट पर फैली रेत व वहां पर रहने वाले पक्षियों को देखकर आनंदित हैं।
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि गंगा के किनारे पड़ी रेत (बालू) में पड़े निशान ऐसे प्रतीत होते हैं मानो किसी ने रेत पर सांप की आकृतियों को उकेर दिया हो। गंगा के तट पर फैली तरबूजों की खेती और सरपट (एक घास ) से बनाई झोपड़ियों भी बहुत ही सुंदर दिखाई दे रही हैं।
एक बगुला जो एक पंजे पर खड़ा हुआ दूसरे पंजा से अपना सिर खुजलाते हुए ऐसा प्रतीत होता रहा हैं जैसे बगुला अपने पंजे से अपनी कलगी सँवार रहा हो।यानि अपने बालों पर कंधी कर रहा हो।
कवि आगे कहते हैं कि सुरखाब पक्षी धीरे धीरे गंगा नदी के कम गहरे पानी में उतर रहे हैं लेकिन मगरौठी (पक्षी) गीली रेत में सुस्ताया हुआ सा दिखाई दे रहा हैं।
काव्यांश 7.
हँसमुख हरियाली हिम-आतप
सुख से अलसाए-से सोये ,
भीगी अँधियाली में निशि की
तारक स्वप्नों में-से खोये-
मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम-
जिस पर नीलम नभ आच्छादन-
निरुपम हिमांत में स्निग्ध शांत
निज शोभा से हरता जन मन !
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने गांव के हरे भरे सौंदर्य को देख रहे है। जो उन्हें बहुत सुंदर दिखाई दे रहा है। कवि कहते हैं प्रकृति अपनी इस अकूत सम्पदा (फसल , रंग बिरंगे फूल , हरे भरे पेड़ पौधे , प्रकृति की अकूत सम्पदा है ) से बेहद खुश हैं।
और इन सर्दियों की धूप (हिम-आतप) में तो हरियाली (प्रकृति) सुख से कभी अलसाई (आलस्य से भरी हुई) हुई तो , कभी सोई दिख रही रही हैं और इस हरियाली के ऊपर पडी ओस की बूँदें , उन तारों की भांति दिखाई दे रही हैं जो अपने सपनों में खोये हुए हैं।
इस हरे-भरे गांव की हरियाली को देख कर कवि को ऐसा लग रहा हैं मानो पन्नों (हरे रंग का रत्न) से भरा कोई डिब्बा खुल गया हो , जिसको नीलम की सी आभा देने वाले नीले रंग का आकाश ढके हुए हो। यानि पन्नों से भरे उस डिब्बे को नीले आसमान ने ढक रखा हो।
सर्दियों के अंत (हिमांत) में इस गाँव के चारों तरफ लहलहाती फसल , हरियाली व गांव की शांति सभी लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं।
कवि का जीवन परिचय
सुमित्रानंदन पंतजी का जन्म उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी गांव में सन 1900 में हुआ था।अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वो उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज गए। मगर स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होनें कॉलेज छोड़ दिया।और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। सन 1977 में उनका देहांत हो गया।
प्रमुख रचनाएं
काव्य रचनाएं-
वीणा , ग्रंथि , गुंजन ग्राम्य , पल्लव , युगांत , स्वर्ण किरण , स्वर्णधूलि , कला और बूढ़ा चाँद , लोकायतन , चिदंबरा।
सम्मान / पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार , भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार , सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार।
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