Bazar Darshan Class 12 Summary :
Bazar Darshan Class 12 Summary
बाजार दर्शन का सारांश
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“बाजार दर्शन” जैनेंद्र कुमार जी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध निबंध है जिसमें उन्होंने उपभोक्तावाद व बाजारवाद के बारे में खुलकर अपने दिल की बात रखी हैं। लेखक कहते हैं कि बाजार का आकर्षण ही ऐसा हैं कि व्यक्ति अपना संयम खो देता है और गैर जरूरी चीजें को भी खरीद लेता है। भले ही बाद में उसे इस बात का अहसास होता है कि उसने बाजार की चकाचौंध से आकर्षित होकर गैर जरूरी चीजें खरीद ली है।
लेखक कहते हैं कि उपभोक्तावाद व बाजारवाद की संस्कृति जिस तरह हर रोज फल फूल रही है और उसने जिस तरह से लोगों के बीच अपनी जबरदस्त पकड़ बनाई है। वह समाज व व्यक्ति दोनों के लिए अच्छा नही है। लेखक कहते हैं कि बाजार की सार्थकता इसी में है कि वह लोगों को उनकी जरूरत का सामान उपलब्ध कराएं और लोग भी अपनी आवश्यकता के अनुसार ही बाजार से सामान खरीदें। अपनी इस बात को वो अपने दो मित्रों और एक पड़ोसी का उदाहरण देकर समझाते हैं।
निबंध की शुरुवात करते हुए लेखक कहते हैं कि उनके एक मित्र जो अपनी पत्नी के साथ कुछ जरूरत का सामान लेने बाजार गये लेकिन बाजार पहुंच कर उन्होंने इतना गैर जरूरी सामान खरीद लिया कि उनके पास घर वापस आने के लिए रेल का टिकट खरीदने तक के लिए भी पैसे नही बचे थे। इस धटना पर वो अपने विचार रखते हुए कहते हैं कि पैसा ही पावर है क्योंकि आज पैसे से सही सब कुछ खरीदा जा सकता हैं।
लेखक कहते हैं कि पैसे में पर्चेजिंग पावर (Purchasing Power) है और कुछ लोग पर्चेजिंग पावर के हिसाब से ही सामान खरीदते हैं यानि जेब में जितना अधिक पैसा , उतना ही अधिक सामान की खरीदारी। फिर चाहे वो सामान उनकी जरूरत का हो या न हो। ये लोग इसी पावर का इस्तेमाल करने में खुशी महसूस करते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पैसे के महत्व को समझते हुए अपने मन पर नियंत्रण रखते हैं और अपनी बुद्धि और संयम से जोड़े हुए पैसों को खर्च करने के बजाय सहेज कर रखने में ज्यादा गर्व महसूस करते है।
लेखक ने जब अपने मित्र से पूछा कि इतना सामान क्यों खरीदा तो उन्होंने जबाब दिया कि यह बाजार तो शैतान का जाल है। जहाँ सामान को कुछ इस तरह रखा जाता हैं कि आदमी आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता हैं। लेखक कहते हैं कि बाजार सबको मूक आमंत्रित करता हैं। उसका तो काम है ग्राहकों को आकर्षित करना। बाजार में खड़ा व्यक्ति आकर्षित तरीके से रखे हुए सामान को देखता है तो फिर उसके मन में उस सामान को लेने की तीब्र इच्छा हो जाती है। और अगर उसके पास पर्चेजिंग पावर है तो वह बाजार की गिरफ्त में आ ही जाएगा।
एक और मित्र का उदाहरण देते हुए लेखक कहते हैं कि उनके एक और मित्र जो दिल्ली के चांदनी चौक में चक्कर लगाकर बिना कोई सामान खरीदे वापस लौट आये। जब उन्होंने अपने मित्र से बाजार से खाली हाथ लौट आने का कारण पूछा।तो उन्होंने लेखक को जबाब दिया कि बाजार में मुझे सभी वस्तुओं को लेने का मन कर रहा था। लेकिन अगर मैं थोड़ा लेता तो बाकी छूट जाता और मैं तो कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता था। इसलिए मैंने कुछ भी नहीं खरीदा।
लेखक कहते हैं कि जब पता ही न हो कि तुम्हें क्या लेना हैं ? तो सभी वस्तुएं तुम्हें आकर्षित करेंगी। जिसका परिणाम बुरा ही होगा। लेखक आगे कहते हैं कि बाजार के जादू से कैसे बचा जाए ? बाजार में एक जादू हैं जो आँखों के रास्ते काम करता हैं। अगर मन खाली हो तो बाजार जाना नहीं चाहिए। क्योंकि आंखों बंद भी कर लेते हैं तो तब भी मन यहां वहां घूमता रहता है। मगर हमें अपने मन पर खुद ही नियंत्रण रखना होगा। क्योंकि कि अगर व्यक्ति की जेब भरी है और मन भी भरा है तो बाजार का जादू उस पर असर नहीं करेगा।
लेकिन अगर जेब भरी है और मन खाली है तो बाजार उसे जरूर आकर्षित करेगा। और फिर व्यक्ति बिना सोचे विचारे सामान खरीदने लगेगा। बाजार के जादू से बचने के लिए व्यक्ति के भीतर आत्मिक संतोष व आत्म नियंत्रण होना आवश्यक हैं जिससे वह किसी लालच में न पड़ें ।
लेखक अपने एक पड़ोसी का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि भगत नाम के एक व्यक्ति जो पिछले कई वर्षों से चूरन बेच रहे हैं। दस वर्षों से लेखक भी उन्हें चूरन बेचते हुए देख रहे हैं। लेखक कहते है कि भगत रोज चूरन बेचने जाते हैं। वह उतना ही चूरन बेचते हैं जितने में उनकी छः आने की आमदनी होती है। छः आने की कमाई होने के बाद वो बिना किसी लालच के बचा हुआ चूरन बच्चों में बांट देते हैं। वो चाहते तो और भी पैसे कमा सकता थे। लेकिन वह ऐसा नहीं करते हैं।
लेखक आगे बताते हैं कि जब भगत बाजार जाते हैं तो उस सीधे पन्सारी की दुकान पर ही जाते हैं जहां उनकी जरूरत का सारा सामान मिल जाता है। वो वहां से अपना सामान लेकर सीधे घर आ जाते हैं। यही उनकी दिनचर्या है। इसके आलावा वो न तो बहुत पैसा कमाने का लालच रखते हैं न गैर जरूरी सामान खरीदने का। लेखक कहते हैं कि हम उनसे सबक लेकर बाजार के जादू से बच सकते हैं।क्योंकि गैर जरूरी सामान खरीद कर व्यक्ति ना तो खुद फायदा उठा रहा है और ना ही बाजार को सही सार्थकता दे रहा है।
बाजार की सार्थकता भी तभी है जब व्यक्ति केवल अपनी जरूरत का सामान खरीदें। बाजार हमेशा ग्राहकों को मौन निमंत्रण देता है। अपनी चकाचौंध से आकर्षित करता है। व्यक्ति का अपने मन पर नियंत्रण होना चाहिए। लेकिन जो लोग अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रखते हैं। वो अपनी पर्चेजिंग पावर के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति – शैतानी शक्ति और व्यंग्य की शक्ति ही बाजार को देते हैं। ऐसे व्यक्ति न तो खुद बाज़ार से कुछ लाभ उठा सकते हैं और न ही बाजार को लाभ दे सकते हैं। ये लोग सिर्फ बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। जिससे बाजार में छल कपट बढ़ता हैं। सद्भावना का नाश होता हैं।
फिर ग्राहक और विक्रेता के बीच संबंध सद्भावना का न होकर , केवल लाभ हानि तक ही सीमित रहता हैं। सद्भाव से हीन बाजार मानवता के लिए विडंबना है और ऐसे बाज़ार का अर्थशास्त्र अनीति का शास्त्र है।
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