Lakshman Murchha Aur Ram Ka Vilap Class 12 Explanation ,
Lakshman Murchha Aur Ram Ka Vilap Class 12 Explanation Hindi Aaroh 2 Chapter 8 , लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप कक्षा 12 का सारांश हिन्दी आरोह 2 पाठ 8
Lakshman Murchha Aur Ram Ka Vilap Class 12 Explanation
लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप कक्षा 12 हिन्दी आरोह 2 पाठ 8
Note –
“लक्ष्मण मूर्छा व राम का विलाप” कविता के प्रश्न उत्तर पढ़ने के लिए Link में Click करें — Next Page
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“लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप” रामचरितमानस के लंका कांड से लिया गया है। लंका कांड रामचरितमानस का छठा अध्याय है जिसके रचयिता तुलसीदासजी है। पूरे रामचरितमानस को अवधी भाषा में लिखा गया है। इसमें भक्ति रस , वीर रस और करुण रस की प्रधानता देखने को मिलती है।
“लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप” प्रसंग रामचरितमानस में तब आता हैं जब रावण , माता सीता का हरण कर ले जाता हैं । भगवान श्रीराम , माता सीता को वापस लाने व रावण का विनाश करने के लिए लंका पर चढ़ाई (आक्रमण) कर देते हैं। दोनों के बीच भयंकर युद्ध होता हैं जिसमें रावण का पुत्र मेघनाद , लक्ष्मण जी पर शक्ति बाण चला देता हैं जिससे लक्ष्मण जी मूर्छित होकर युद्धभूमि में ही गिर पड़ते हैं।
इसके बाद हनुमान जी लंका से सुषेण वैद्य को लेकर आते हैं । सुषेण वैद्य , श्रीरामजी को बताते हैं कि संजीवनी बूटी जो सिर्फ हिमालय पर्वत में ही मिलती हैं अगर उसे सूर्योदय होने से पहले लाया जाय तो लक्ष्मण जी के प्राण बचाये जा सकते हैं।
हनुमानजी पवन गति से हिमालय पर्वत की ओर प्रस्थान करते हैं । मगर हिमालय पहुंच कर वो संजीवनी बूटी को पहचान नही पाते हैं। इसीलिए वो पूरा पहाड़ ही उठा कर लंका की ओर वापस आते हैं।
मगर रास्ते में अयोध्या से गुजरते वक्त भरतजी उन्हें देख लेते हैं । हनुमान जी के विशालकाय शरीर को देखकर भरतजी उन्हें राक्षस समझ कर उन पर बाण चला देते हैं जिससे हनुमान जी “राम” का नाम लेते हुए धरती पर गिर पड़ते हैं । राम का नाम सुनकर जब भरतजी उनके पास पहुंते हैं तब उन्हें सारे वृतांत का पता चलता हैं । भरतजी को बड़ा पश्चाताप होता हैं ।
हनुमान जी , सूर्योदय से पहले लंका पहुंचने की बात कहकर भरतजी से चलने की आज्ञा मांगते हैं। उसके बाद का धटनाक्रम इस कविता के माध्यम से बताया गया हैं।
Lakshman Murchha Aur Ram Ka Vilap Class 12 Explanation
दोहा
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत ।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत ।।
भावार्थ –
हनुमानजी भरत जी से कहते हैं कि हे !! प्रभु मैं आपके प्रताप , यश व मान – सम्मान को अपने हृदय में धारण करता हूं। अब आप मुझे जाने की अनुमति दें क्योंकि लक्ष्मण जी के प्राण संकट में है और मुझे सूर्योदय होने से पहले लंका पहुंचना है।
ऐसा कह कर हनुमान जी ने भरत जी के चरण स्पर्श किए और उनका आशीर्वाद लेकर वहां से लंका की ओर चले पड़े।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार ।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ।।
भावार्थ-
हनुमानजी रास्ते में भरतजी के बारे में सोच रहे थे कि भरतजी की भुजाओं में बहुत अधिक बल है मगर फिर भी वो बहुत ही शीलवान , गुणवान हैं और उनके मन में प्रभु श्रीराम के प्रति अपार प्रेम हैं। संजीवनी बूटी लंका ले जाते हुए हनुमानजी बार – बार मन ही मन भरतजी की प्रशंसा कर रहे थे।
काव्य सौंदर्य –
- यह एक दोहा छंद है।
- इस दोहे में अवधी भाषा का प्रयोग किया गया है।
- दोहे में भक्ति रस की प्रधानता हैं।
- “बाहु बल” , “मन महुँ” , “प्रभु पद प्रीति” में अनुप्रास हैं।
- “पुनि – पुनि” में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैं।
चौपाई
उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ।
- यह चौपाई छंद है।
- इसमें करुण रस की प्रधानता हैं।
- चौपाई में अवधी भाषा का प्रयोग किया गया है।
- तजेहु पितु माता” में अनुप्रास अलंकार हैं।
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ।।
भावार्थ-
श्रीराम कहते हैं कि हे !! भाई तुम्हारा वो प्रेम अब कहाँ गया। तुम मेरे व्याकुलता भरे वचनों को सुनकर उठ क्यों नहीं जाते हो। यदि मैं जानता कि वन में मेरा भाई मुझसे बिछड़ जाएगा तो मैं पिता की बात कभी नहीं मानता।
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ।
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ।।
भावार्थ-
श्रीराम आगे कहते हैं कि पुत्र , धन , स्त्री , घर और परिवार , ये सब इस संसार में बार-बार मिल सकते हैं। मगर इस संसार में सगा भाई दुबारा नहीं मिल सकता हैं । अपने हृदय में ऐसा विचार कर हे भाई ! तुम उठ जाओ। (श्रीराम को सगा भाई इसलिए दुबारा नही मिल सकता क्योंकि उनके पिता की मृत्यु हो चुकी हैं।)
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही ।।
भावार्थ-
श्रीराम कहते हैं कि जिस प्रकार पंख बिना पक्षी , मणि बिना सांप और सूँड बिना हाथी बहुत ही असहाय होते हैं। ठीक उसी तरह हे भाई !! मैं देवताओं की कृपा से जीवित तो रहूंगा मगर तुम्हारे बिना मेरा जीवन एक जिन्दा लाश की भांति ही होगा।
जैहउँ अवध कौन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई ।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं ।।
भावार्थ–
श्रीराम कहते हैं कि हे भाई !! मैं अयोध्या कौन सा मुंह लेकर जाऊंगा। सब लोग कहेंगे कि राम ने पत्नी के लिए अपना प्रिय भाई गँवा (खो) दिया। अभी तो मैं इस संसार में सिर्फ पत्नी को खोने का कलंक सह रहा हूं। लेकिन स्त्री की हानि कोई विशेष क्षति नहीं होती हैं।
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ।।
भावार्थ-
श्रीराम कहते हैं कि हे भाई !! अब तुम्हें खोने का अपयश भी मुझे मिलेगा और मेरा निष्ठुर , कठोर हृदय तुझे खोने का गम भी सहेगा। भाई , तुम अपनी मां की एकमात्र संतान हो और उनके जीने का एकमात्र सहारा भी हो।
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी।
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई ।।
भावार्थ-
श्रीराम कहते हैं कि हे भाई !! तुम्हारी माता ने तुम्हारा हाथ पकड़कर , तुम्हें मुझे सौंपा था। यह सोचकर कि सब कुछ अच्छा होगा , मेरे हित में होगा । अब मैं अयोध्या जाकर तुम्हारी माता को क्या उत्तर दूंगा। हे भाई !! तुम एक बार उठकर मुझे यह सब सिखा दो।
बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन।
उमा एक अखंड रघुराई । नर गति भगत कृपाल देखाई ।।
भावार्थ-
दुनिया की सभी चिंताओं का नाश करने वाले भगवान श्रीराम बहुत प्रकार से सोच रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से आंसू बह रहे है।
यह कथा भगवान शंकर , माता पार्वती को सुना रहे हैं। और माता पार्वती को बता रहे हैं कि हे !! उमा , रामजी अखंड है। उनको दुनिया का कोई दुख छू भी नहीं सकता हैं। यह सब लीला तो वो अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए कर रहे हैं। क्योंकि उन्होंने मनुष्य रूप धारण किया है।
काव्य सौंदर्य –
- यह चौपाई छंद है।
- इसमें करुण रस की प्रधानता हैं।
- चौपाई में अवधी भाषा का प्रयोग किया गया है।
- तात – तासु , एक – कुमारा , सोच – बिमोचन , स्रवत – सलिल , बहु – बिधि में अनुप्रास अलंकार है।
- “राजिव दल लोचन” में रूपक अलंकार हैं ।
- “जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना” जैसे सुंदर उपमानों का प्रयोग हुआ हैं।
सोरठा
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस ।।
भावार्थ-
प्रभु श्रीराम के व्याकुल वचनों को सुनकर वानर व भालू का समूह भी बैचेन व व्याकुल हो गया । ठीक उसी समय किसी ने आकाश की तरफ देखते हुए कहा , वो देखो हनुमानजी आ गए। और सभी वानर व भालू खुशी से उछलने लगे। उस समय ऐसा लगा रहा था मानो जैसे करुणरस में वीर रस का संचार हो गया है ।
काव्य सौंदर्य –
- यह सोरठा छंद है।
- करुण रस व वीर रस की प्रधानता हैं।
चौपाई
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई ।।
भावार्थ-
श्री रामजी ने बहुत खुश होकर हनुमानजी को गले से लगा लिया। सब कुछ जानने वाले प्रभु श्रीराम हनुमानजी के कृतज्ञ हो गए । उसके बाद सुषेण वैद्य ने लक्ष्मणजी का उपचार किया और थोड़ी ही देर बाद लक्ष्मणजी उठकर हंसते हुए बैठ गए।
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता।
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा ।।
भावार्थ-
प्रभु श्रीराम ने अपने भाई को गले से लगा लिया है। सभी बंदर और भालू खुश हो गए। और फिर हनुमान्जी ने सुषेण वैद्य को ठीक उसी प्रकार वही पहुँचा दिया , जिस प्रकार पहले जहाँ से ले आए थे।
चौपाई
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।
रावण बड़ा परेशान होकर अपने छोटे भाई कुंभकरण के पास गया और उसने उसे अनेक प्रकार से जगाने की कोशिश की क्योंकि कुंभकरण 6 महीने सोता था और 6 महीने जागता था। और उस वक्त वो सोया हुआ था।
काव्य सौंदर्य –
- पुनि – पुनि में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैं।
- यह चौपाई छंद है।
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा ।
- यह चौपाई छंद है।
- “मानहुँ” में उत्प्रेक्षा अलंकार हैं।
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी।
- यह चौपाई छंद है।
- महा – महा में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैं।
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी।
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा ।।
भावार्थ-
दुर्मुख , देवताओं का शत्रु (सुररिपु) , मनुष्य को खाने वाला (मनुज अहारी) , भारी शरीर वाला योद्धा अतिकाय , अकम्पन तथा महोदर आदि सभी वीर रणभूमि में मारे गए हैं।
दोहा
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