Shirish Ke Phool Class 12 Summary ,
Shirish Ke Phool Class 12 Summary
शिरीष के फूल का सारांश
“शिरीष के फूल” एक निबंध है जिसके लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। इस निबंध के माध्यम से लेखक ने स्पष्ट संदेश दिया है कि जिस तरह आँधी , लू , प्रचंड गर्मी व हर तरह की विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए शिरीष का फूल अपनी कोमलता व सुंदरता को बिखेरता हुआ सीना ताने खड़ा रहता है। ठीक उसी तरह हमें भी विपरीत परिस्थितियों में अपने धैर्य व संयम को बनाए रखते हुए अपने बुद्धि विवेक से निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहना चाहिए। शिरीष का फूल हमें जीवन में लगातार संधर्ष करने की प्रेरणा देता हैं।
लेखक इस निबंध को जेठ की तपती गर्मी में शिरीष के फूल के पेड़ों के एक समूह के बीच बैठ कर लिख रहे हैं जो ऊपर से नीचे तक सुंदर , मनमोहक व कोमल फूलों से लदे हैं। वैसे तो जेठ की भयंकर गर्मी में बहुत कम फूल खिलते हैं। केवल अमलतास ही 15 से 20 दिन के लिए खिलता है। हालांकि कबीरदास जी को 10 -15 दिन के लिए फूलों का खिलना पसंद नहीं है।
मगर शिरीष के फूल लम्बे समय तक खिले रहते हैं। वो बसंत (मार्च -अप्रैल) से खिलना प्रारंभ होते हैं और भादो (जुलाई – अगस्त) तक खिले रहते हैं। लेखक इसे “कालजयी अवधूत” और “भारतीय संस्कृति” का प्रतीक मानते हैं क्योंकि यह हमें विषम परिस्थितयों में भी प्रसन्नता व मस्ती के साथ जीवन जीने की कला सिखाता हैं।
इसीलिए लेखक कहते हैं कि भीषण गर्मी और लू में भी शिरीष का यह फूल किसी अवधूत (ऐसा संन्यासी , जिस पर सर्दी , गर्मी , बरसात और सुख -दुःख का कोई असर नहीं पड़ता हैं।) की तरह जीवन पथ पर निरंतर आगे बढ़ता रहता है । यानि वातावरण व बदलते मौसमों का इस पर कोई प्रभाव नही पड़ता हैं।
वैसे शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं और पुराने समय में इन वृक्षों को मंगल कारक मानकर इन्हें बाग़ -बगीचों में लगाया जाता था। वात्स्यायन कहते हैं कि बगीचे में घने व छायादार वृक्षों और बकुल के पेड़ों में ही झूला लगाना चाहिए। लेकिन लेखक मानते हैं कि शिरीष के पेड़ भी झूला झूलने के लिए उपयुक्त है।
ऐसा माना जाता है कि शिरीष की डालें बहुत कमजोर होती हैं। इसीलिए झूला झूलने योग्य नही होती हैं। लेकिन लेखक कहते हैं कि उस पर झूला झूलने वालियों (किशोरियों) का वजन भी कम ही होता है।
शिरीष के फूल को संस्कृत साहित्य में बहुत ही कोमल माना जाता है। इसे केवल श्रृंगार के योग्य ही समझा गया हैं । कालिदास तो यहां तक कहते हैं कि शिरीष के फूल केवल भौंरों (एक कीट पतंग , जो फूलों पर बैठता हैं।) के पैरों का दबाव ही सहन कर सकते हैं पक्षियों के पैरों का दबाव भी सहन नहीं कर सकते हैं। इसी आधार पर ही शिरीष के फूलों को कोमल माना जाने लगा।
लेकिन लेखक कहते हैं कि लोग इसके फलों की मजबूती को नहीं देखते हैं। इसके फल इतनी मजबूती से अपने स्थान पर या डालियों पर टिके (चिपके) रहते हैं कि नए फलों के आने पर भी वो अपना स्थान आसानी से नहीं छोड़ते हैं। वो अपना स्थान तभी छोड़ते हैं या डालियों से तभी नीचे गिरते हैं जब उन्हें जबरदस्ती धकेला जाता है। अन्यथा सूखकर भी वो डालियों में ही खड़खड़ाते रहते हैं।
इस संदर्भ में लेखक को उन नेताओं की भी याद आ जाती है जो समय को नहीं पहचानते हैं और प्रसिद्धि व लोभ लालच के चक्कर में अपने पद पर बने रहते हैं। वो अपने पद को तब तक नहीं छोड़ते हैं जब तक उन्हें जबरदस्ती धक्का मारकर छोड़ने को विवश ना किया जाए। लेखक कहते हैं कि पुरानी पीढ़ी को समय रहते ही सावधान हो जाना चाहिए और नई पीढ़ी के लिए खुद-ब-खुद स्थान छोड़ देना चाहिए।
लेखक मानते हैं कि वृद्धावस्था और मृत्यु , इस जगत के सत्य है और शिरीष के फलों को भी समझना चाहिए कि झडना निश्चित है। परंतु सुनता कोई नहीं। मृत्यु के देवता निरंतर कोड़े चला रहे हैं उसमें कमजोर समाप्त हो जाते हैं। जीवनधारा व समय के बीच संघर्ष चालू है। हिलने -डुलने वाले कुछ समय के लिए तो बच सकते हैं पर झड़ते ही मृत्यु निश्चित है।
लेखक मानते हैं कि भयंकर गर्मी में भी शिरीष का फूल अपने लिए जीवन रस ढूंढ ही लेता है। एक वनस्पति शास्त्री ने बताया कि यह वायुमंडल से अपना रस खींचता है तभी तो भयंकर गर्मी व लू में भी ऐसे मीठे केसर (फूलों के अंदर के कोमल रेशे या तंतु) उगा सकता है और किसी अवधूत की भाँति अपना अस्तित्व बनाये रखता है।
यहाँ पर लेखक कहते हैं कि इसी तरह कवि भी सिर्फ उनको ही माना जा सकता हैं जो स्थिरप्रज व अनासक्त योगी हो और शिरीष की भांति ही फक्क्ड़ हो। कबीरदास और कालीदास जी उसी श्रेणी के कवि माने जाते हैं। कालिदास ने शकुंतला के सौंदर्य का वर्णन किया हैं। वास्तव में वो शकुंतला का सौंदर्य नहीं बल्कि कालिदास के ह्रदय की सुंदरता हैं। लेखक मानते हैं कि सिर्फ शब्द लिखने और तुकबंदी करने को कविता नही कह सकते हैं।
कर्नाट राज की प्रिया(रानी) विज्जिका देवी ने केवल ब्रह्मा (वेदों की रचना की) , बाल्मीकि (रामायण) और व्यास (महाभारत) को ही कवि माना हैं। लेखक का मानना है कि जिसे कवि बनना है उसे अनासक्त योगी व फक्कड़ बनने की जरूरत है। कालिदास भी किसी अनासक्त योगी की तरह शांत मन और चतुर प्रेमी थे। उनका एक-एक श्लोक मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। शकुंतला का वर्णन कालिदास ने ही किया है।
लेखक कहते हैं कि राजा दुष्यंत ने भी शकुंतला का चित्र बनाया लेकिन उन्हें उस चित्र में हर बार कुछ ना कुछ कमी महसूस होती थी। बहुत देर बाद उन्हें समझ में आया कि वो शकुंतला के कानों में शिरीष का फूल लगाना ही भूल गए। कालिदास सौंदर्य के बाहरी कवर को भेदकर उसके भीतर पहुंचते में समर्थ थे। वो सुख – दुख दोनों में भाव रस खींच लिया करते थे। ऐसी प्रकृति सुमित्रानंदन पंत व रवींद्र नाथ टैगोर में भी थी। शिरीष पक्की तरह लेखक के मन के भावों की तरंगे को उठा देता है जो आग उगलती गर्मी में भी अपना अस्तित्व बनाये रखता है।
लेखक कहते हैं कि आज देश में चारों ओर मारकाट , आगजनी , लूटपाट आदि का बवंडर छाया है। ऐसे में क्या स्थिर रहा जा सकता है। शिरीष रह सका है। गांधीजी भी रह सके हैं। यहाँ पर लेखक ने गांधीजी को एक ऐसे अवधूत के रूप में याद किया हैं जिसने देह बल के ऊपर आत्मबल को सिद्ध किया है। यानि शाररिक रूप से बेहद कमजोर गांधी जी ने अपने आत्मबल के सहारे अंग्रेजों के खिलाफ कई बड़े आंदोलन सफलतापूर्वक चलाये और देश में गांधीवादी मूल्यों को स्थापित किया।
इसीलिए लेखक जब शिरीष की ओर देखते है तो उनके मन में एक हूक उठती है। हाय वह अवधूत आज कहां है ? यानि आज देश में न गांधीजी हैं और न ही उनके जीवन मूल्यों को मानने वाले लोग।
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