Appu ke Sath Dhai Saal Class 11 Summary

Appu ke Sath Dhai Saal Class 11 Summary  

अपू के साथ ढाई साल का सारांश

Appu ke Sath Dhai Saal Class 11 Summary

Note –

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Appu ke Sath Dhai Saal Class 11 Summary 

“अपू के साथ ढाई साल” मुख्य रूप से सत्यजीत राय द्वारा लिखित एक संस्मरण हैं जिसमें उन्होंने अपने निर्देशन में बनी पहली फिल्म “पथेर पांचाली” को बनाने वक्त आयी आर्थिक समस्यायों व अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को साँझा किया है। बांग्ला भाषा में बनी “पथेर पांचाली” फीचर फिल्म सन 1955 में प्रदर्शित हुई थी।  इस फिल्म ने सत्यजीत राय को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई।

संस्मरण की शुरुवात करते हुए लेखक कहते हैं कि “पथेर पांचाली” फिल्म की शूटिंग ढाई साल तक चली। मगर इन ढाई सालों में हर रोज शूटिंग नही होती थी। क्योंकि लेखक उस समय एक विज्ञापन कंपनी में नौकरी करते थे। इसीलिए वो कंपनी के काम से फुर्सत मिलने के बाद और पैसों का इंतजाम होने के बाद ही शूटिंग करते थे।

लेखक कहते हैं कि शूटिंग शुरू करने से पहले कलाकारों को ढूढ़ना भी बहुत बड़ा काम होता हैं और बहुत ढूँढ़ने के बाद भी उन्हें अपनी फिल्म में “अपू” की भूमिका निभाने के लिए एक छह साल का लड़का नही मिल रहा था। इसीलिए उन्होंने अखबार में एक विज्ञापन निकला और रासबिहारी एवेन्यू की एक बिल्डिंग में एक कमरा किराए में लिया जहां अपू की भूमिका निभाने के लिए बच्चों का इंटरव्यू लिया जाता था। बहुत बच्चे इंटरव्यू के लिए आये लेकिन लेखक को कोई पसंद नही आया ।

जिस कारण वो काफी परेशान हो गये थे। आखिरकार एक दिन लेखक की पत्नी की नज़र पड़ोस में रहने वाले एक लड़के पर पड़ी और फिर वही लड़का यानि सुबीर बनर्जी ही “पथेर पांचाली” में अपू बना। चूँकि फिल्म की शूटिंग रोज-रोज नही होती थी। इसीलिए फिल्म बनाने में अधिक समय लगने लगा। जिस वजह से लेखक को यह डर सताने लगा कि अगर अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाले बच्चे समय के साथ – साथ ज्यादा बड़े हो गए तो फिल्म में इसका असर दिखेगा।

लेकिन लेखक की खुशकिस्मती से वो ज्यादा बढ़े नही हुए। और इंदिरा ठाकरुन की भूमिका निभाने वाली अस्सी साल की चुन्नीबाला देवी ने भी पूरी फिल्म में काम किया। फिल्म की शूटिंग के लिए लेखक अपू व दुर्गा को लेकर कलकत्ता से लगभग सत्तर मील दूर पालसिट नाम के एक गाँव पहुंचे। ज़हाँ रेल लाइन के पास काशफूलों से भरा एक मैदान था। और उसी मैदान में अपू व दुर्गा “पहली बार रेलगाड़ी देखते हैं” इस सीन की शूटिंग होनी थी। चूंकि सीन बड़ा था। इसलिए एक दिन में इसकी पूरी शूटिंग नही हो पायी।

और कलाकार , निर्देशक , छायाकार आदि सभी नए होने के कारण घबराए हुए थे। इसीलिए बाकी के सीन को बाद में शूट करने का निर्णय लिया गया। लेकिन सात दिन बाद जब लेखक दोबारा वहाँ शूटिंग करने पहुँचे तब तक सारे काशफूल जानवर खा चुके थे। इसीलिए उन्होनें बाकी के आधे सीन की शूटिंग अगली शरद ऋतु में जब वहाँ दुबारा काशफूल खिले तब की।

इस सीन की शूटिंग के लिए तीन रेलगाड़ियों का इस्तेमाल किया गया। “सफेद काशफूलों की पृष्ठभूमि पर काला धुआँ छोड़ती हुई रेलगाड़ी” वाला सीन अच्छा दिखे। इसीलिए टीम के एक सदस्य अनिल बाबू रेलगाड़ी चलते समय इंजिन ड्राइवर के केविन में सवार हो जाते थे। और शूटिंग की जगह पर पहुंचते ही वो बायलर में कोयला डालना शुरू कर देते थे ताकि रेलगाड़ी से काला धुआँ निकले।

इस फिल्म को बनाने वक्त लेखक को कई आर्थिक परेशानियों से गुजरना पड़ा। जिन्हें वो कुछ उदाहरणों के जरिये हमें बताते हैं। सबसे पहले लेखक बताते हैं कि फिल्म में “भूलो” नाम के कुत्ते पर एक सीन फिल्माना था जिसके लिए उन्हें कुत्ता तो गाँव से ही मिल गया था मगर आधा सीन शूट करने के बाद रात होने लगी और साथ ही लेखक के पास पैसे भी खत्म हो गए।

छह महीने बाद जब पैसे इकट्ठे करके लेखक दुबारा बोडाल गाँव पहुँचे तो पता चला कि वह कुत्ता मर चुका हैं। फिर एक भूलो जैसे ही दिखने वाले कुत्ते को ढूँढ़कर बाकी की शूटिंग पूरी की गई। लेखक कहते हैं कि ठीक यही समस्या एक कलाकार के संदर्भ में भी पैदा हुई। फिल्म में मिठाई बेचने वाले श्रीनिवास की भूमिका निभाने वाले कलाकार की भी आधा सीन फिल्माने के बाद मृत्यु हो गई। यहाँ भी उन्हें पैसे न होने की वजह से काम कुछ दिन के लिए रोकना पड़ा था। बाद में उससे मिलते जुलते कद काठी वाले व्यक्ति को लेकर शूटिंग पूरी की गई।

श्रीनिवास के सीन में भूलो कुत्ते के कारण भी शूटिंग करने में थोड़ी परेशानी हुई। एक सीन में कुत्ते को दुर्गा व अपू के पीछे दौड़ना था और भूलो कुत्ते को उनके पालतू कुत्ते के जैसे उनके पीछे दौड़ना था। लेकिन कुत्ता ऐसा नहीं कर रहा था। अंत में दुर्गा के हाथ में थोड़ी मिठाई छिपाई गई और उसे कुत्ते को दिखाकर दौड़ने की योजना बनाई गई। ताकि मिठाई को देखकर कुत्ता दुर्गा के पीछे-पीछे दौड़े। योजना सफल हुई और लेखक को मन के मुताबिक सीन मिला और शूटिंग पूरी हुई।

पैसे की कमी के कारण एक और सीन फिल्माने में लेखक को बहुत दिक्क्त आई। बारिश के दृश्य को फिल्माना था लेकिन पैसे की कमी से कारण पूरे बरसात में वो शूटिंग नहीं कर पाये । अक्टूबर में पैसों का इंतजाम हुआ तब तक बारिश खत्म हो चुकी थी।

लेकिन वो शरद ऋतु में वर्षा के इंतजार में अपनी टीम के साथ हर रोज गांव जाकर बारिश का इंतजार करते थे। और एक दिन आकाश में बादल छाये और धुआँधार बारिश हुई। दुर्गा व अप्पू ने बारिश में भीगने का सीन बहुत अच्छे से किया। लेकिन ठंड लगने के कारण दोनों काँपने लगे। तब उन्हें दूध में ब्रांडी मिलाकर पिलाई गई।

लेखक कहते हैं कि शूटिंग करने के लिए गोपाल गांव के बजाय बोडाल गाँव ज्यादा अच्छा था क्योंकि वहाँ अपू – दुर्गा का घर , अपू का स्कूल , गाँव के मैदान , खेत , आम के पेड़ , बाँस की झुरमुट आदि उन्हें वहां आसानी से मिल गये थे ।

लेखक को बोडाल गाँव में एक साठ – पैंसठ साल के विचित्र व्यक्ति “सुबोध दा” भी मिले। जो अपनी झोंपड़ी के दरवाजे में अकेले बैठकर कुछ न कुछ बड़बड़ाते रहते थे। वो मानसिक रूप से बीमार थे और लेखक की टीम को देखते ही उन्हें मारने की कहते। लेकिन बाद में लेखक का सुबोध दा से अच्छा परिचय हो गया था। वो उन्हें वायलिन पर लोकगीतों की धुनें बजाकर सुनाते थे।

ऐसे ही शूटिंग के दौरान उनका पाला एक पागल धोबी से भी पड़ा जो किसी भी समय राजकीय मुद्दों पर भाषण देने लगता था। जिससे शूटिंग के दौरान उनका साउंड का काम प्रभावित होता था। पथेर पांचाली की शूटिंग के लिए लिया गया घर भी लगभग खंडहर जैसा ही था। उसे ठीक करवाने में एक महीना लग गया। इस घर के कुछ कमरों में सामान रखा रहता था। घर के एक कमरे में भूपेन बाबू रिकॉर्डिंग मशीन लेकर शूटिंग के दौरान साउंड रिकार्ड करते थे।

एक दिन जब लेखक ने शॉट लेने बाद उनसे साउंड के बारे में पूछा तो उन्होनें कोई जबाब नही दिया। लेखक ने अंदर जाकर देखा तो उनके कमरे की खिड़की से एक बड़ा साँप नीचे उतर रहा था।जिसे देखकर भूपेन बाबू की बोलती बंद हो गई थी। वो उस सांप को मारना चाहते थे लेकिन स्थानीय लोगों ने उन्हें ऐसा करने से मना किया क्योंकि वह “वास्तुसर्प” था जो बहुत दिनों से वहाँ रह रहा था।

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