Rajasthan Ki Rajat Bunde Class 11 Summary

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Rajasthan Ki Rajat Bunde Class 11 Summary

राजस्थान की रजत बूंदें का सारांश

Rajasthan Ki Rajat Bunde Class 11 Summary

Note –

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“राजस्थान की रजत बूंदें” के लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्रजी हैं। यह पाठ उनकी ही प्रसिद्द किताब “राजस्थान की रजत बूंदें” का एक छोटा सा अंश हैं जिसमें उन्होंने राजस्थान की मरूभूमि में अमृत समान मीठे पानी के स्रोत “कुंई” व उनको बनाने वाले “चेलवांजी” के बारे में विस्तार से वर्णन किया है।

राजस्थान में “कुंई” का निर्माण रेत में समाये वर्षा के पानी को इकठ्ठा करने के लिए किया जाता है। “कुंई” की खुदाई और चिनाई करने वाले दक्ष लोगों को “चेलवांजी” या “चेजारो” कहा जाता है और “कुंई” की खुदाई के काम को “चेजा” कहा जाता है।

कुआँ और कुंई में अंतर

कुआँ एक पुलिंग शब्द हैं। कुँए में भूजल (भूमि के अंदर का पानी) इकठ्ठा होता हैं जो राजस्थान में खारा होता हैं। यह पीने योग्य नही होता हैं। कुँए का व्यास व गहराई काफी होती हैं।

जबकि “कुंई” एक स्त्रीलिंग शब्द हैं जिसमें वर्षा का मीठा व पीने योग्य जल इकठ्ठा होता हैं। जब वर्षा नहीं भी होती हैं तब भी उसका जल बड़े विचित्र ढंग से इसमें इकठ्ठा होता हैं। कुंई में जमा पानी न तो भूमि की सतह पर बहने वाला पानी (नदी या तालाब का पानी) हैं और न ही भूजल (कुँए का पानी)। यह तो रेत के अंदर नमी के रूप में इकठ्ठा वर्षा का जल हैं जो धीरे – धीरे बूँद बनकर कुंई में इकठ्ठा होता रहता हैं।

कुंई का व्यास कुएँ से कम होता हैं लेकिन गहराई लगभग कुएँ के बराबर ही होती हैं। लेकिन राजस्थान के अलग -अलग क्षेत्रों में कुंईयों की गहराई अलग – अलग हो सकती हैं।

लेखक कहते हैं कि चेलवांजी पूरी तरह से पसीने से तरबतर होकर एक कुंई की खुदाई कर रहे हैं।  अभी तक वो तीस – पैतीस हाथ तक की गहरी खुदाई कर चुके हैं। कुंई का व्यास बहुत ही कम होता है जिसके कारण खुदाई का काम कुल्हाड़ी या फावड़े से करने के बजाय बसौली (फावड़े जैसा ही एक छोटा सा औजार जिसका फल लोहे का और हत्था लकड़ी का होता हैं) से किया जाता है।

कुंई की गहराई में लगातार बढ़ती गर्मी को कम करने के लिए ऊपर जमीन में खड़े लोगों द्वारा बीच-बीच में मुट्ठी भर रेत बहुत जोर से नीचे फेंकी जाती हैं जिससे ताजी हवा नीचे जाती है और नीचे की गर्म हवा ऊपर लौट आती है। ऊपर से फेंकी गयी रेत से बचने के लिए चेलवांजी अपने सिर पर धातु का एक बर्तन , टोप (टोपी) की तरह पहन लेते हैं।

लेखक कहते हैं कि राजस्थान की मरुभूमि में रेत का विस्तार और गहराई अथाह है और अगर यहां अधिक मात्रा में वर्षा होती हैं तो , वो भी तुरंत भूमि में समा जाती है यानि वर्षा का पानी जमीन के ऊपर ज्यादा देर नही रुकता हैं। वो तुरंत रेत में समा जाता हैं।

पर इसी मरुभूमि में कहीं – कहीं रेत की सतह के नीचे खड़िया पत्थर की एक लम्बी – चौड़ी पट्टी चलती है। यह पट्टी रेत की सतह से दस -पंद्रह हाथ नीचे से लेकर पचास – साठ हाथ नीचे तक हो सकती हैं। रेत के नीचे दबे होने के कारण यह खड़िया पत्थर की पट्टी ऊपर से नही दिखाई देती हैं। ऐसे क्षेत्रों में कुँई खोदते समय मिट्टी में हो रहे परिवर्तन से खड़िया पत्थर की पट्टी का पता चलता हैं।

यही खड़िया पत्थर की पट्टी ही वर्षा के जल को गहरे खारे भूजल में मिलने से रोकती है। वर्षा होने पर , उस बड़े क्षेत्र में वर्षा का पानी , तुरंत भूमि की रेतीली सतह के नीचे और नीचे चल रही खड़िया पत्थर की पट्टी के ऊपर यानि इन दोनों के बीच में अटक जाता हैं और फिर उसी इलाके में नमी की तरह फैल जाता है।

चूंकि रेत के कण बहुत बारीक होते हैं और मरुभूमि में ये समान रूप से बिखरे रहते हैं। पानी गिरने पर ये कण थोड़े भारी जरूर हो जाते हैं मगर ये कण न तो आपस में चिपकते हैं और न ही अपनी जगह छोड़ते हैं जिस कारण मिट्टी में दरार नहीं पड़ती हैं और इस तरह भीतर समाया वर्षा का जल भीतर ही बना रहता है , गर्मी से भाप बनकर उड़ता नही हैं।

इस क्षेत्र में बरसी पानी की एक -एक बूँद रेत में समा कर नमी में बदल जाती है। कुँई बनने पर रेत में समाई यही नमी , फिर से पानी की बूंदों में बदल कर कुँई में इकठ्ठा होने लगती हैं और यही पानी खारे पानी के सागर में अमृत जैसा मीठा होता है।

यहां पानी को तीन भागों में बांटा गया है।

  1. पालरपानी यानी सीधे वर्षा से मिलने वाला पानी। यह धरातल पर बहता है और इससे नदी या तालाब आदि में रोका जाता है।
  2. पातालपानी यानि भूजल।  यह वही भूजल है जो कुओं से निकाला जाता है मगर यह खारा होता है।
  3. रेजाणीपानी यानि धरती की सतह के नीचे लेकिन पाताल में न मिल पाये पानी को रेजाणीपानी कहते है। रेजाणीपानी ही खड़िया पत्थर की पट्टी के कारण पातालपानी में नहीं मिल पाता है। इसी रेजाणीपानी को इकठ्ठा करने के लिए कुँई का निर्माण किया जाता है। राजस्थान में वर्षा की मात्रा को इंच या सेंटीमीटर में नापने के बजाय “रेजा” में नापा जाता हैं। 

इस अमृत समान रेजाणीपानी को समेटने वाली कुँई को बनाना भी एक विशिष्ट कला हैं। चार -पांच हाथ व्यास की कुँई की तीस से साठ -पैंसठ हाथ की खुदाई और चिनाई के काम में जरा सी भी चूक चेजोरो (खुदाई और चिनाई करने वाला ) की जान ले सकती हैं।

बीस -पच्चीस हाथ की खुदाई होने पर ही कुँई के अंदर की गर्मी बढ़ने लगती है और हवा कम होने लगती है। तब ऊपर से मुठ्ठी भर -भर कर रेत नीचे तेजी से फेंकी जाती हैं जिससे नीचे काम कर रहे चेलवांजी को राहत मिल जाती है।

वैसे तो कुँई के अंदर मिट्टी को रोकने के लिए ईट की चिनाई की जाती हैं। मगर किसी -किसी जगह पर कुँई बनाते समय ईट की चिनाई से मिट्टी को रोकना संभव नहीं हो पाता है। तब कुँई को खींप (एक प्रकार की घास जिससे रस्सी बनाई जाती हैं) की रस्सी से बांधा जाता हैं और कही -कही कुँई की चिनाई अरणी , बण(कैर) , आक , बावल या कुंबट के पेड़ों की टहनियों से बने लट्ठों से की जाती हैं।

ये लठ्ठे नीचे से ऊपर की ओर एक दूसरे में फंसा कर सीधे खड़े किए जाते हैं। फिर इन्हें खींप या चग की रस्सी से बांधा जाता है। यह बँधाई भी कुंडली का आकार लेती है। इसीलिए इसे साँपणी भी कहते हैं।

कुँई के भीतर खुदाई और चिनाई का काम कर रहे चेलवांजी को मिट्टी की खूब परख होती है। खड़िया पत्थर की पट्टी देखते ही चेलवांजी खुदाई का काम बंद कर ऊपर आ जाते हैं और इस तरह कुँई की खुदाई का काम पूरा हो जाता हैं। 

पहले समय में कुँई की सफल खुदाई के बाद उत्सव मनाया जाता था व विशेष भोज का आयोजन किया जाता था। चेलवांजी को विदाई के समय तरह-तरह की भेंट दी जाती थी। आच प्रथा के तहत उन्हें वर्ष भर के तीज त्यौहारों , विवाह जैसे मंगलिक अवसरों पर भेंट दी जाती थी।

फसल कटने पर खेत – खलिहानों में उनके नाम से अनाज का अलग ढेर भी लगाया जाता था।लेकिन अब सिर्फ मजदूरी देकर भी काम करवाने का रिवाज आ गया है।

कुँई का मुंह छोटा रखने के तीन बड़े कारण हैं। 

  1. कुँई में पानी बूँद – बूँद कर धीरे – धीरे इकठ्ठा होता हैं। दिन भर में मुश्किल से दो -तीन घड़े पानी ही जमा हो पाता हैं। ऐसे में कुँई का व्यास ज्यादा होगा तो पानी तले में ही फ़ैल जायेगा जिसे निकलना सम्भव नही हैं। कम व्यास में यह पानी दो -चार हाथ ऊपर आ जाता हैं जिसे बाल्टी या चड़स से आसानी से निकाल लिया जाता हैं।  
  2. कुँई का मुंह छोटा होने से पानी भाप बनकर उड़ नही पाता हैं। 
  3. कुँई का पानी साफ रखने के लिए उसका मुंह छोटा होना जरूरी हैं । कुँई के मुंह को लकड़ी से बने ढक्क्न या कहीं – कहीं खस की टट्टी की तरह घास -फूस या छोटी-छोटी टहनियों से बने ढक्कनों से ढक दिया जाता हैं।  

गहरी कुँई से पानी खींचने की सुविधा के लिए उसके ऊपर धीरनी या चकरी लगाई जाती है। यह गरेड़ी  , चरखी या फरेड़ी भी कहलाती हैं।

यहां खड़िया पत्थर की पट्टी एक बड़े भाग से गुजरती हैं। इसीलिए उस पूरे हिस्से में बहुत सारी कुँईयों एक साथ बनाई जाती हैं। गांव में हरेक की अपनी – अपनी अलग कुँई होती है तथा उसे बनाने या उससे पानी लेने का हक भी उसका अपना होता है लेकिन कुँई का निर्माण समाज गांव की सार्वजनिक जमीन पर किया जाता है। इसीलिए निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में बनी कुँई के ऊपर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है।

राजस्थान में रेत के नीचे सब जगह खड़िया पत्थर की पट्टी न होने के कारण कुँई हर जगह नहीं मिलती हैं। चुरू , बीकानेर , जैसलमेर और बाड़मेर के कई क्षेत्रों में यह पट्टी चलती है।  इसी कारण वहां गांव – गांव में कुँईयों है।

अलग -अलग जगह पर खड़िया पट्टी के नाम भी अलग -अलग हैं जैसे चारोली , धाधड़ों , धड़धड़ों , बिट्टू रो बल्लियों व खड़ी हैं।  इसी खड़ियापट्टी के बल पर राजस्थान की कुँईयों खारे पानी के बीच मीठा पानी देती है। 

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