Aao Milkar Bachaye Class 11 Explanation

Aao Milkar Bachaye Class 11 Explanation ,

Aao Milkar Bachaye Class 11 Explanation

आओ मिलकर बचाएँ कक्षा 11 का भावार्थ

Aao Milkar Bachaye Class 11 Explanation

NOTE –

  1. “आओ , मिलकर बचाएँ” कविता के MCQ पढ़ने के लिए Link में Click करें – Next Page
  2. “आओ , मिलकर बचाएँ” कविता के प्रश्न उत्तर पढ़ने के लिए Link में Click करें – Next Page
  3. आओ मिलकर बचाएँ पाठ के भावार्थ को हमारे YouTube channel  में देखने के लिए इस Link में Click करें  ।   YouTube channel link – (Padhai Ki Batein / पढाई की बातें)

कवयित्री निर्मला पुतुल , इस कविता के माध्यम से अपनी अनोखी संथाली सभ्यता व संस्कृति से हमारा परिचय कराती हैं। वो अपने लोगों से अपने क्षेत्र के प्राकृतिक परिवेश ,  शुद्ध हवा , पानी , पेड़ पौधों  , लोकगीतों व अपनी सभ्यता व संस्कृति को सहेजकर व बचाकर रखने का आग्रह करती हैं। वो संथाली समाज के सकारात्मक व नकारात्मक , दोनों पहलुओं को बड़ी बेबाकी से हमारे सामने रखती हैं।

“आओ , मिलकर बचाएँ” कविता का संथाली भाषा से हिंदी रूपांतरण (अनुवाद) अशोक सिंह जी ने किया हैं।

 काव्यांश 1 .

आओ , मिलकर बचाएँ 

अपनी बस्तियों को

नंगी होने से

शहर की आबो- हवा से बचाएँ उसे 

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवयित्री झारखंड की अपनी संथाली आदिवासी संस्कृति को शहरी सभ्यता – संस्कृति के कुप्रभाव से दूर रखना चाहती हैं क्योंकि अब आदिवासी लोग भी अपनी संस्कृति को छोड़कर धीरे धीरे शहरी तौर तरीके अपनाने लगे हैं ।

कवयित्री कहती है कि हमारी बस्तियों पर लगातार शहरी संस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है। लोगों में तन ढकने के बजाय तन दिखाने की होड़ मची है। इसके साथ ही धरती को भी पेड़ पौधों से विहीन किया जा रहा है यानि शहरीकरण के चक्कर में लगातार पेड़ -पौधों को काट कर इस हरी भरी धरती को नंगा किया जा रहा हैं ।

कवयित्री लगातार हो रहे शहरीकरण के कारण अपने क्षेत्र को वृक्ष विहीन होने से बचाना चाहती हैं।  अपने पर्यावरण को सुरक्षित रखना चाहती हैं और अपनी संथाली परम्पराओं को बचाना चाहती हैं।

काव्यांश 2.

बचाएँ डूबने से

पूरी की पूरी बस्ती को

हड़िया में  ( हड़िया -एक तरह का बर्तन , जिसमें आदिवासियों द्वारा शराब बनाई जाती हैं ) 

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवयित्री कहती है कि शहरी वातावरण का प्रभाव अब हमारे क्षेत्र के लोगों पर भी पड रहा हैं। यहां की बस्ती के लोग भी अब शहर के लोगों की तरह ही नशा करने लगे हैं। इससे पहले कि हमारी पूरी बस्ती के लोगों को नशे की लत लग जाए। हमें अपने लोगों को नशे की प्रवृत्ति से बचाना होगा।

काव्यांश 3.

अपने चेहरे पर

संथाल परगना की माटी का रंग

भाषा में झारखंडीपन

ठंडी होती दिनचर्या में 

जीवन की गर्माहट

मन का हरापन

भोलापन दिल का

अक्खड़पन , जुझारूपन भी

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवयित्री कहती है कि शहरी आबो -हवा आदिवासियों के सरल रहन- सहन , स्वभाव व संस्कृति को प्रभावित कर रही हैं। इसीलिए वो अपने लोगों से आग्रह करते हुए कहती है कि हमें अपने मूल आदिवासी चरित्र व संस्कृति को बनाए रखना हैं।

कवयित्री कहती है कि संथाल परगना के लोगों की सभ्यता , संस्कृति व झारखंडी भाषा ही उनकी असली पहचान है। इसीलिए उसे बनाए रखें। उस पर शहरी प्रभाव न पड़ने दें।

शहरी प्रभाव पड़ने के कारण लोगों की दिनचर्या में आलस बढ़ता जा रहा है जिस कारण उनकी दिनचर्या पहले जैसी उत्साह , उमंग भरी नही रही। उन्हें उसे दूर करना चाहिए ताकि जीवन में उमंग , उल्लास , उत्साह बना रहे और मन खुशियां से भरा रहे। उनके दिल का भोलापन शहरी प्रभाव से प्रभावित न हो। अक्खड़पन , जुझारूपन आदिवासियों के स्वभाव की विशेषता है जिसे उन्हें खोना नहीं चाहिए।

अर्थात कवयित्री कहती है कि झारखंडी संथाल समाज की पहचान वहां के लोगों का उत्साह से भरा जीवन  , उनका जोशीला मन , दिल का भोलापन  , स्वभाव में अक्खड़पन व जुझारूपन हैं जिसे उन्हें बनाये रखना हैं। 

काव्यांश 4.

भीतर की आग

धनुष की डोरी

तीर का नुकीलापन

कुल्हाड़ी की धार

जंगल की ताजा हवा

नदियों की निर्मलता

पहाड़ों का मौन

गीतों की धुन

मिट्टी का सोंधापन

फसलों की लहलहाहट

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवयित्री कहती है कि संथाली लोगों की पहचान उनके भीतर की आग यानि  उनका साहस , पराक्रम व वीरता है। धनुष की डोरी पर चढ़ा तीर और कंधे पर कुल्हाड़ी ही हमारी  असली पहचान हैं जिसे हमें बनाए रखना है।

प्रकृति ने झारखंड को भरपूर प्राकृतिक संपदा से नवाजा हैं। इसलिए यहां खूब पेड़ पौधे हैं। वातावरण में ताजा हवा है। नदियों का पानी एकदम साफ व निर्मल है। ऊँचे -ऊँचे शानदार पहाड़ों में एकदम शांति छायी रहती हैं। आदिवासी पहाड़ी गीतों की धुन , मिट्टी का सौंधापन व खेतों पर लहलहाती फसल इस क्षेत्र को विशिष्टता प्रदान करती है।

अर्थात संथाल परगना की मिट्टी की भीनी भीनी खुशबू , खेतों पर लहलहाती फसल , यहां के लोकगीत , ये सब हमारी संस्कृति व हमारी पहचान हैं। इन सब को शहरी संस्कृति के प्रभाव से हमें बचाये रखना हैं।

काव्यांश 5.

नाचने के लिए खुला आंगन

गाने के लिए गीत

हंसने के लिए थोड़ी – सी खिलखिलाहट

रोने के लिए मुट्ठी भर एकांत

बच्चों के लिए मैदान

पशुओं के लिए हरी – हरी घास

बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति

भावार्थ –

शहरों में बढ़ती जनसंख्या के कारण घर एवं आंगन छोटे होते जा रहे हैं। बच्चों के खेलने के मैदान खत्म होते जा रहे हैं।

इसीलिए उपरोक्त पंक्तियों में कवयित्री कहती है कि गाँवों में हमारे पास नाचने गाने व मौज मस्ती करने के लिए खुले स्थान हैं । अपनी खुशी व आनंद को प्रकट करने के लिए हमारे पास सुंदर – सुंदर लोकगीत- संगीत भी हैं यानी हम अपनी खुशी अपने लोकगीतों के जरिये प्रकट कर सकते हैं।

शहर की बढ़ती आबादी के कारण घर व खुले मैदान छोटे और एकांत स्थान खत्म होते जा रहे हैं।भीड़ बहुत हैं मगर पड़ोसी -पड़ोसी को नही पहचानता हैं। व्यक्ति अपने सुख व दुःख , दोनों में अकेला रहता हैं। मगर हमारे गांवों में ऐसा नही हैं।

हम अपनी खुशियों को पूरे गाँव के साथ मनाकर उसे दुगना कर लेते हैं और अपने दुःख को अपनेआप से एकांत में व्यक्त कर कम कर लेते हैं क्योंकि जीवन में खुलकर हंसना खिलखिलाना और कभी – कभी रोना भी जरूरी है।

कवयित्री कहती है कि बच्चों के खेलने के लिए खुले मैदान चाहिए , पशुओं के चरने के लिए हरी – हरी घास व बड़े -बुजुर्गों को रहने के लिए ठीक वैसी ही शान्ति चाहिए जैसी अमूमन पहाड़ों पर छाई रहती हैं। और यह सब उनके क्षेत्र में भरपूर मात्रा में हैं।

इसीलिए वो आदिवासी समाज से अपने क्षेत्र के मूल स्वरूप , वातावरण , प्राकृतिक परिवेश , सभ्यता व संस्कृति को बचाए रखने का आग्रह करती हैं।

काव्यांश 6.

और इस अविश्वास भरे दौर में

थोड़ा सा विश्वास

थोड़ी सी उम्मीद

थोड़े से सपने

आओ , मिलकर बचाएँ 

कि इस दौर में भी बचाने को 

बहुत कुछ बचा है ,

अब भी हमारे पास !

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवयित्री कहती है कि शहरी संस्कृति के प्रभाव के कारण अब चारों तरफ लोगों में अविश्वास , ईर्ष्या , राग -द्वेष की भावना बढ़ रही हैं। लोग एक दूसरे पर सहज ही विश्वास नहीं पाते हैं।

इन लोगो के अंदर थोड़ा सा विश्वास जगाना हैं जिससे उनके अंदर थोड़ी सी उम्मीद जागे ताकि वो फिर से थोड़े से सपने देख सकें और उनका जीवन सुखी हो सके।

कवयित्री कहती है कि मैं लोगों से आग्रह करती हूँ कि अभी भी स्थिति बहुत अधिक नहीं बिगड़ी है। अभी भी हमारे पास बचाने के लिए बहुत कुछ है। हमें फिर से उसे सहेजना है , सवांरना हैं । इसीलिए आओ , हमसब मिलकर  , अपनी सभ्यता व संस्कृति को बचाएँ , उसकी रक्षा करें।

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