Rubaiyan Class 12 Explanation : रुबाइयाँ का भावार्थ

Rubaiyan Class 12 Explanation ,

Rubaiyan Class 12 Explanation

रुबाइयाँ का सारांश

Rubaiyan Class 12 Explanation

Note –

  1. रुबाइयों व गजल के प्रश्न उत्तर पढ़ने के लिए Link में Click करें – Next Page
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रुबाइयाँ के कवि रघुपति सहाय फ़िराक जी हैं जिन्होँने “फ़िराक गोरखपुरी” नाम से अपनी रचनाएँ लिखी । रुबाइयां , उर्दू – फारसी की एक छंद शैली होती है जिसकी पहली , दूसरी और चौथी पंक्ति एक जैसी मात्रा पर खत्म होती है मगर तीसरी पंक्ति स्वतंत्र यानि अलग होती है । जैसे

आंगन में लिए चांद के टुकड़े को खड़ी

हाथों पे झुलाती है उसे गोद – भरी

रह- रह के हवा में जो लोका देती है

गूँज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हंसी

इसमें खड़ी , भरी और हंसी में एक जैसी मात्रा हैं जबकि तीसरी पंक्ति अलग हैं। फ़िराक गोरखपुरी जी ने अपनी इस रचना में हिंदी व उर्दू की मिश्रित शब्दावली का प्रयोग किया गया है। इसमें वात्सल्य रस की प्रधानता है।

फ़िराक गोरखपुरी जी ने इन रुबाइयाँ के जरिये बहुत ही खूबसूरती से मां और बच्चे के बीच के आपसी प्यार व अटूट विश्वास का सुंदर चित्रण किया है। कवि ने माँ के प्यार के अनेक रूप इन रुबाइयाँ में प्रस्तुत किये हैं।

जैसे मां का अपने बच्चे को अपने हाथों में झूला झूलना , हवा में उछलना , अपनी बाँहों में भर लेना ,  बच्चे को नहा – धुला कर उसे अपने घुटनों के बीच रखकर कपड़े पहनाना , चाँद मांगने की जिद में रूठे बच्चे को बहला – फुसला कर मनाने आदि का सजीव चित्रण किया है ।

साथ ही साथ दीपावली व रक्षाबंधन जैसे पावन पर्वों का बहुत ही कम शब्दों में बहुत सुंदर व सटीक वर्णन किया हैं।

रुबाइयाँ का भावार्थ

काव्यांश 1.

आंगन में लिए चांद के टुकड़े को खड़ी

हाथों पे झुलाती है उसे गोद – भरी

रह- रह के हवा में जो लोका देती है

गूँज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हंसी।

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने एक मां और बच्चे के बीच के आपसी प्यार व विश्वास का अद्भुत चित्रण किया है । कवि कहते हैं कि एक मां अपने घर के आंगन में अपने चांद के टुकडे यानि अपने नन्हे बच्चे को लेकर खड़ी है। कभी वह उसे (बच्चे को) अपने हाथों पर झूला झूलती है तो कभी उसे गोद में भर लेती है।

और कभी – कभी उसे हवा में ऊपर उछाल कर झट से पकड़ लेती हैं । माँ के इस प्यार – दुलार से बच्चा भी बहुत खुश होता है और खिलखिला कर हंस देता है। उस नन्हे बच्चे की हंसी से पूरा घर – आंगन गूँज भी उठता हैं।

काव्य सौंदर्य –

  1. यह रुबाई छंद हैं।
  2. यह दृश्य बिंब प्रधान रुबाई हैं जैसे  आंगन में लिए चांद के टुकड़े को खड़ी , हाथों पे झुलाती है उसे गोद – भरी , रह- रह के हवा में जो लोका देती है।
  3. “खिलखिलाते बच्चे की हंसी” एक श्रव्य बिंब हैं।
  4. “चांद के टुकडे” में रूपक अलंकार है । “चांद का टुकडा” एक मुहावरा भी है।
  5. इस काव्यांश में वात्सल्य रस की प्रधानता है।
  6. “लोका देना” लोक भाषा का एक शब्द है।
  7. “रह- रह” में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

काव्यांश 2.

नहला के छलके – छलके निर्मल जल से

उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके

किस प्यार से देखता है बच्चा मुंह को

जब घुटनियों में ले के हैं पिन्हाती कपड़े। 

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने मां द्वारा अपने नन्हे बच्चे को नहलाने व उसके उलझे बालों को संवार कर उसे कपड़े पहनाने का सुंदर चित्रण किया है। कवि कहते हैं कि मां बच्चे को साफ पानी से नहलाती है। उसके उलझे हुए बालों को कंधी कर सुलझाती व संवारती है।

और जब माँ उसे अपने घुटनों के बीच खड़ा कर कपड़े पहनाती है तो बच्चा बड़े प्यार से अपनी मां के चेहरे को देखता है।

काव्य सौंदर्य –

  1. यह एक रुबाई छंद हैं।
  2. “छलके – छलके” पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. “निर्मल जल” और “कंघी करके” में अनुप्रास अलंकार है।
  4. इस काव्यांश में वात्सल्य रस की प्रधानता है।
  5. उर्दू के शब्दों का प्रयोग किया गया है।
  6. यह दृश्य बिंब प्रधान रुबाई हैं।

काव्यांश 3.

दीपावली की शाम घर पुते और सजे

चीनी के खिलौने जगमगाते लावे

वो रूपवती मुखड़े पै इक नर्म दमक

बच्चे के घरौंदे में जलाती है दिए। 

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने दीपावली की शाम , घर में होने वाले खुशी के माहौल का सजीव चित्रण किया गया है। कवि कहते हैं कि दीपावली की शाम को अपने पुते (पुताई किये हुए या रंग रोगन किये हुए ) व सजे घर में मां अपने बच्चे के लिए चीनी मिट्टी के खिलौने व जगमगाते हुए दिये लेकर आयी हैं।

शाम को जब वह अपने पूरे घर में दिये जलाती हैं तो एक दिया बच्चे के मिट्टी के घर (घरौंदे) में भी जला देती है । और उस दिए की झिलमिलाती रोशनी में मां का सुंदर चेहरा कोमलता व ममता की आभा से दमक उठता है।

काव्य सौंदर्य –

  1. यह रुबाई छंद हैं।
  2. यह दृश्य बिंब प्रधान रुबाई हैं।
  3. इसमें हिंदी – उर्दू की मिश्रित शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
  4. “सजे – लावे” में अनुप्रास अलंकार है।
  5. इसमें वात्सल्य रस की प्रधानता है।

काव्यांश 4 .

आंगन में ठुनक रहा है जिदयाया है

बालक तो हई चाँद पर ललचाया है

दर्पण उसे दे के कह रही है मां

देख आईने में चांद उतर आया है। 

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में बच्चा अपनी माँ से चाँद देने की जिद कर रहा है और माँ उसे बहला – फुसला कर मनाने की कोशिश कर रही है।

कवि कहते हैं कि बच्चा आँगन में मचल रहा है और जिद कर रहा है उसे आकाश का चांद चाहिए। बच्चे की इस जिद पर माँ बच्चे को एक दर्पण (शीशा / आईना ) थमा देती है। और फिर उस दर्पण में चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर बच्चे को समझा रही है कि देखो , आकाश का चांद दर्पण में उतर आया है। दर्पण में चांद को देख बच्चा प्रसन्न हो जाता है।

बच्चे को खुद का प्रतिबिंब भी दर्पण में दिखाई देता है। और हर मां के लिए अपना बच्चा “चांद का टुकड़ा” ही होता है।

काव्य सौंदर्य –

  1. यह रुबाई छंद हैं।
  2. इसमें भ्रांतिमान अलंकार का प्रयोग किया गया है।
  3. वात्सल्य रस की प्रधानता है।
  4. “जिदयाया – ललचाया” में अनुप्रास अलंकार है।
  5. इसमें हिंदी – उर्दू की मिश्रित शब्दावली का प्रयोग किया गया है।

काव्यांश 5.

रक्षाबंधन की सुबह रस की पुतली

छायी है घटा गगन की हल्की – हल्की

बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे

भाई के हैं बाँधती चमकती राखी। 

भावार्थ –

उपरोक्त पंक्तियों में कवि रक्षाबंधन के त्यौहार व भाई – बहिन के प्यार भरे पवित्र रिश्ते का वर्णन कर रहे है। कवि कहते हैं कि रक्षाबंधन की मधुर व प्रेम भरी सुबह के समय आकाश में हल्के – हल्के बादल छाए हुए हैं।

और जिस तरह उन बादलों के बीच बिजली चमक रही हैं ठीक उसी तरह राखी के लच्छों पर लगे मोती व सितारे भी चमक रहे हैं। और फिर बहिन बड़े ही प्यार से इन चमकती राखियों को अपने भाई की कलाई पर बांधती हैं।

(रक्षाबंधन का त्यौहार सावन के महीने (जुलाई -अगस्त) में आता है। इसीलिए उस समय आकाश में बादल छाने व बरसात होने की पूरी – पूरी संभावना रहती हैं।)

(बहुत सारे राखी के धागों को जब एक साथ बाँधा जाता हैं तो उन्हें “लच्छे” कहा जाता है। )

काव्य सौंदर्य –

  1. यह एक रुबाई छंद हैं।
  2. इसमें हिंदी – उर्दू की मिश्रित शब्दावली का प्रयोग किया गया है।
  3. “हल्की-हल्की” में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैं।

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