Bazar Darshan Class 12 Question Answer : प्रश्नोत्तर

Bazar Darshan Class 12 Question Answer :

Bazar Darshan Class 12 Question Answer

बाजार दर्शन के प्रश्न उत्तर

Note –

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प्रश्न 1.

बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है ?

उत्तर –

बाजार का जादू इंसान के अंदर आंखों के रास्ते प्रवेश करता है। जब व्यक्ति बाजार में जाता है तो वह बाजार में बहुत ही करीने से सजी हुई वस्तुओं को देखकर आकर्षित होता है और फिर उन सभी वस्तुओं को खरीदने के लिए उसके मन में तीव्र इच्छा होने लगती है।

इसके बाद वह जरूरी वस्तुओं के साथ गैर जरूरी वस्तुओं को भी खरीदने लगता है। उस वक्त उन वस्तुओं को खरीदने में उसे एक आत्मिक संतोष महसूस होता है। घर आने के पश्चात उसे महसूस होता है कि उसने बाजार से आकर्षित होकर कई सारी गैर जरूरी वस्तुएं खरीद ली है जो उसके किसी काम की नहीं है। और फिर उसे इस बात पर पछतावा होने लगता है। 

प्रश्न 2.
बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है ? क्या आपकी नज़र में उनको आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है ?

उत्तर-

भगत जी बहुत ही साधारण तरीके से जीवन यापन करने वाले संतोषी व्यक्ति हैं। वो उतना ही कमाना पसंद करते हैं जितने में उनका जीवन यापन आराम से हो जाय। बहुत अधिक धन संचय करने में वो विश्वास नहीं करते हैं। इसीलिए छह आने की आमदनी होने के बाद वो बचा चूर्ण बच्चों में बाँट देते हैं।

उनका अपने मन पर भी पूरा नियंत्रण रहता है। वो जब भी बाजार जाते हैं तो बाजार की चकाचौंध से आकर्षित हुए बिना सिर्फ अपनी जरूरत का सामान खरीद कर अपने घर वापस आते हैं। भगत जी जैसे लोग ही बाजार को सार्थकता देते हैं।  ऐसे लोग समाज को प्रेम , सौदार्द , भाईचारे व सदभावना का संदेश देते हैं और समाज में शांति स्थापित करने में मददगार होते है। 

प्रश्न 3.

“बाज़ारूपन” से क्या तात्पर्य है ? किस प्रकार के व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाज़ार की सार्थकता किसमें हैं ?

उत्तर-

बाजारूपन का अर्थ हैं पैसे के बल पर सिर्फ दिखावे के लिए बाजार से गैर जरूरी सामान खरीदना। गैर जरूरी सामान खरीद कर व्यक्ति ना तो खुद फायदा उठाता है और ना ही बाजार को सही सार्थकता देता है। बाजार की सार्थकता तभी है जब व्यक्ति केवल अपनी जरूरत का सामान खरीदें। बाजार हमेशा ग्राहकों को मौन निमंत्रण देता है। अपनी चकाचौंध से आकर्षित करता है। व्यक्ति का अपने मन पर नियंत्रण होना चाहिए।

लेकिन जो लोग अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रखते हैं। ऐसे व्यक्ति न तो खुद बाज़ार से कुछ लाभ उठा सकते हैं और न ही बाजार को लाभ दे सकते हैं।ये लोग सिर्फ बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। जिससे बाजार में छल कपट बढ़ता हैं। सद्भावना का नाश होता हैं।

प्रश्न 4.

बाजार किसी का लिंग , जाति , धर्म व क्षेत्र नहीं देखता है। वह देखता है सिर्फ उसकी क्रय शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इस बात से कहां तक सहमत हैं ?

उत्तर –

यह बात बिल्कुल सच है क्योंकि बाजार की खासियत हैं कि वह कभी भी किसी ग्राहक को उसके लिंग , जाति , धर्म व क्षेत्र के आधार पर नहीं देखता है। वह बस उस व्यक्ति के खरीदने की शक्ति को देखता है। जो व्यक्ति जितना अधिक सामान खरीदता है वह व्यक्ति बाजार के लिए उतना अधिक जरूरी है। 

उपभोक्तावादी संस्कृति का एक पहलू यह भी है कि वह ग्राहक को सिर्फ ग्राहक मानता हैं। गरीब अमीर या किसी धर्म विशेष का नहीं मानता हैं।  जिससे वह एक प्रकार से सामाजिक समता की रचना भी कर रहा है।

प्रश्न 5.

आप अपने समाज से कुछ ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करें ?

(क)

जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।

उत्तर – 

हमारे पड़ोस में रहने वाले गुप्ता जी सब्जी का ठेला लगाकर जैसे तैसे अपना और अपने बच्चों का पेट पालते थे। उनका बड़ा बेटा बहुत ही होनहार था। उसने पहली बार में ही आईआईटी की परीक्षा पास कर ली।

लेकिन आईआईटी में एडमिशन लेने और आगे की पढ़ाई करने के लिए उसे अच्छी खासी रकम की जरूरत थी जो उसके पिता के लिए इकठ्ठा करना बहुत मुश्किल काम था । बहुत प्रयास करने के बाद भी जब रकम का इंतजाम नहीं हो पाया तो , उसने आईआईटी में एडमिशन लेने का विचार छोड़ दिया। लेकिन सही समय पर समाज सेवक चौधरी जी ने आगे बढ़ कर उस लड़के की पढ़ाई का पूरा खर्चा अपने सिर ले लिया। उस वक्त पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।

(ख)

जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई। 

उत्तर – 

मेरे एक परिचित को पेट से संबंधित गंभीर बीमारी हो गई थी। उसके पिता अमीर व्यक्ति थे। उन्होंने अपने बेटे को बहुत अच्छे हॉस्पिटलों व बड़े नामी डॉक्टरों को दिखाया। वो अपने बेटे को अच्छा करने के लिए सब कुछ लुटा देने को तैयार थे। लेकिन बीमारी अधिक बढ़ जाने के कारण वो उसे बचा नहीं पाए। तब पहली बार एहसास हुआ कि पैसा ही सबकुछ नहीं होता हैं।

 

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