Patang Class 12 Explanation :
Patang Class 12 Explanation
पतंग कविता का भावार्थ
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पतंग कविता के कवि आलोक धन्वा जी है। सावन और भादो माह में आसमान धने काले बादलों से ढका रहता हैं जिस कारण समय – समय पर रिमझिम बरसात होती रहती हैं। मगर शरद ऋतु के आते ही प्रकृति और आसमान दोनों ही एकदम साफ , स्वच्छ व निर्मल हो जाते हैं। बच्चों के दिल भी एक नये उत्साह व उमंग से भर जाते है और वो अपनी रंग-बिरंगी पतंगों लेकर अपने-अपने घरों की छतों में पहुंच जाते हैं।
अपनी बाल सुलभ कल्पनाओं व उम्मीदों के जैसे ही वो अपनी पतंग की डोर को खींच कर उसे भी आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं। पतंग के पीछे दौड़ते-भागते बच्चों का शरीर भी उनके मन जैसा ही कोमल व लचीला होता है। पतंग उड़ाने के लिए इधर उधर दौड़ते-भागते बच्चों को यह भी पता नहीं रहता है कि उनके नीचे की जमीन कितनी कठोर है या वो पतंग की डोर खींचते-खींचते छत के एकदम किनारे तक पहुंच गए हैं जहां से वो नीचे भी गिर सकते हैं।
लेकिन उनका पूरा ध्यान अपनी उस पतंग पर ही रहता है जो आसमान की ऊंचाइयों पर लहरा- लहरा कर उनके दिलों को एक नये उत्साह , उमंग व खुशी से भर देती हैं और उनकी बाल सुलभ – कल्पनाओं को साकार करती है। इस कविता के माध्यम से कवि ने यह बताने की कोशिश की है कि बच्चों का पतंग से कितना गहरा नाता होता है।
पतंग कविता का भावार्थ
काव्यांश 1 .
सबसे तेज़ बौछारें गयीं भादों गया
सवेरा हुआ
ख़रगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
पतंग उड़ाने वाले बच्चों के झुंड को
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि सावन और भादो का महीना बीत गया। उसी के साथ ही तेज बारिश का मौसम भी बीत गया हैं। चूंकि सावन- भादो के महीनों में आसमान पर अधिकतर बादल छाये रहते हैं। इसीलिए सूरज की किरणें धरती पर कम ही पड़ती हैं यानि सूरज भी बादलों के पीछे छुप कर हमसे लुका-छुपी का खेल खेलते हैं। लेकिन जैसे ही शरद ऋतु आती हैं तो आसमान एकदम साफ , स्वच्छ व निर्मल हो जाता हैं और सूरज की किरणें सीधे धरती पर पड़ती है।
उस वक्त कवि को ऐसा महसूस होता है जैसे कि अंधेरी रात बीत गई और सुहानी सुबह हो गयी हैं और शरद ऋतु की उस सुहानी सुबह में आकाश में छाई लालिमा को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे वो खरगोश की लाल-लाल आंखों हों अर्थात शरद ऋतु में आकाश में छाई हुई लालिमा खरगोश की आँखों की भांति लाल दिखाई दे रही हैं।
पिछले साल की शरद ऋतु से इस साल की शरद ऋतु के आने तक , बीच में कई और ऋतुएँ भी आयी और गई । कवि ने उन सभी ऋतुओं को “पुल” का नाम दिया है। शरद ऋतु में दोपहर के समय जब आसमान में सूरज की किरणें चारों ओर फैल कर एकदम चमकीली दिखाई देती है तो कवि को वो किसी “साइकिल” की भाँति प्रतीत होती हैं।
इसीलिए कवि कहते हैं कि शरद ऋतु किसी छोटे बच्चे की तरह कई सारे पुलों को पार करते हुए , अपनी चमकीली साइकिल को तेज चलाते हुए और साइकिल की घंटी को जोर-जोर बजाते हुए पतंग उड़ाने वाले बच्चों के झुंड को अपने चमकीले इशारों से बुला रहा है। मानो जैसे कह रहा हो कि मौसम एकदम सुहाना हो गया। इसलिए तुम पतंग उड़ाने के लिए अपने घरों से बाहर निकल आओ।
विशेषता –
“शरद आया” में शरद को मानवीकरण किया है। सबसे तेज़ बौछारें गयीं , खरगोश की आंखों जैसा लाल सवेरा , शरद आया , पुलों को पार करते हुए , अपनी नई साइकिल तेज चलाते हुए , चमकीले इशारों से बुलाते हुए , ये सब दृश्य बिम्ब हैं। जबकि घंटी जोर से बजाते हुए श्रब्य बिम्ब हैं।इस पूरी कविता में साहित्य खड़ी बोली का प्रयोग किया है।
काव्यांश 2 .
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके-
दुनिया की सबसे हलकी और रंगीन चीज़ उड़ सके
दुनिया का सबसे पतला काग़ज़ उड़ सके-
बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके-
कि शुरू हो सके सीटियों , किलकारियों और
तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया
भावार्थ –
शरद ऋतु में आकाश एकदम साफ , स्वच्छ और मौसम सुहाना हो जाता है और हल्की-हल्की सर्दी पड़ने लगती हैं। आसमान में चमकते सूरज को भी सीधे देखा जा सकता हैं। ऐसा निर्मल आकाश कवि को मुलायम प्रतीत होता है। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि बालक शरद अपने चमकीले इशारों से बच्चों के समूह को बुलाता है। बच्चों की पतंग आसमान में आसानी से बहुत ऊंची उड़ सके। इसीलिए उसने आकाश को मुलायम बना दिया हैं।
बालक शरद भी यही चाहता हैं कि दुनिया की सबसे हल्की और रंगीन पतंग आसमान में ऊंची उड़ सके , दुनिया के सबसे पतले काग़ज़ और बाँस की सबसे पतली कमानी से बनी पतंग आसमान में ऊंची उड़ सके और पतंग उड़ाते , प्रसन्नता से इधर उधर भागते हुए , किलकारियां (चिल्लाना) मारते हुए और खुशी से सीटियां बजाते हुए तितलियों की तरह चंचल बच्चों की एक नाजुक सी दुनिया शुरू हो सके।
यानि आसमान में उड़ती पतंगों के साथ-साथ बच्चे भी अपनी बाल सुलभ कल्पनाएं के साथ आसमान में उड़ सकें।
विशेषता –
“आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए” में स्पर्श बिम्ब और “पतंग ऊपर उठ सके” में दृश्य बिम्ब है।
काव्यांश 3.
जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास
जब वे दौड़ते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए
जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि पतंग उड़ाते बच्चों का दौड़ना-भागना और खुशी से उछलना देखकर उनकी तुलना कपास के साथ करते हुए कहते है कि जिस तरह कपास मुलायम , शुद्ध और सफेद होती हैं। ठीक उसी प्रकार बच्चों का मन व भावनाएं भी स्वच्छ , कोमल और पवित्र होती हैं।
अर्थात बच्चे जन्म से ही अपने साथ निर्मलता , कोमलता लेकर आते हैं। और जब वो पतंग के पीछे भागते हैं तो कवि को ऐसा लगता हैं जैसे कि उनकी निर्मलता , कोमलता व पवित्रता को छूने पृथ्वी भी घूम-घूमकर उनके आस-पास आ रही है।
कवि आगे कहते हैं कि बच्चे जब बेसुध होकर पतंग के पीछे भागते हैं तो उनकी आँखें आसमान की ऊंचाइयों पर उड़ती उस पतंग पर ही टिकी रहती हैं। जिस वजह से उन्हें छत की कठोरता का एहसास भी नहीं होता हैं यानि उस वक्त वो कठोर छत को भी नरम ही महसूस करते हैं।
और उनके तेज दौड़ने – भागने से उनके पैरों के दवारा होने वाली आवाज ऐसी प्रतीत होती है जैसे कि सभी दिशाओं में मृदंग (ढोलक के जैसा दिखने वाला वाद्य यंत्र) बज रहा हो। कवि ने बच्चों के दौड़ने-भागने की तुलना झूला – झूलने से की है। जैसे झूला झूलते समय एक बार झूला बहुत ऊँचा चला जाता हैं फिर तेजी से अपनी पहली वाली स्थिति में आ जाता हैं। ठीक उसी प्रकर बच्चे एक जगह से दौड़ लगा कर दूसरी जगह पहुँच जाते हैं। फिर थोड़ी देर बाद दौड़ते हुए पहली वाली जगह पर ही वापस आ जाते हैं।
दौड़ते-भागते इन बच्चों को किसी पेड की डाल की तरह इनका लचीला शरीर सुरक्षित रखता हैं जैसे पेड की डाल को जोर से खींचने के बाद जब छोड़ते हैं तो वह अपने लचीलेपन के कारण बिना किसी नुकसान के पुन: अपनी पहली वाली अवस्था में आ जाती हैं।
विशेषता –
यहाँ पृथ्वी का मानवीकरण किया है।
काव्यांश 4 .
छतों के खतरनाक किनारों तक-
उस समय गिरने से बचाता है उन्हें
सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत
पतंगों की धड़कती ऊचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे
पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि बच्चे पतंग के पीछे दौड़ते-भागते छतों के खतरनाक किनारों तक पहुंच जाते हैं। लेकिन पतंग उड़ाते समय उनके रोमांचित मन के अंदर की खुशी व उनके शरीर का लचीलापन उनको छतों से नीचे गिरने से बचाता हैं ।
धड़कन बढ़ा देने वाली ऊंचाईयों पर उड़ती हुई पतंगों की डोर बच्चों के हाथों में होती हैं। और बच्चे महज एक धागे के सहारे उस पतंग को संतुलित कर लेते हैं। और अपने आप को भी उसी डोर के सहारे गिरने से बचा लेते हैं। पतंग उड़ाते इन बच्चों को देखकर ऐसा लगता है जैसे पतंग के साथ-साथ वो भी अपनी कल्पनाओं , भावनाओं व खुशी के सहारे उड़ रहे।
विशेषता –
कविता में उर्दू के शब्दों का प्रयोग किया गया हैं जैसे बेचैन , महज , खतरनाक आदि । “धड़कती ऊचाइयाँ” में दृश्य बिंब है
काव्यांश 5.
अगर वे कभी गिरते हैं छतों के खतरनाक किनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
पृथ्वी और भी तेज घूमती हुई आती है
उनके बेचैन पैरों के पास
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि पतंग उड़ाते हुए जब कभी ये बच्चे छतों के किनारों से नीचे गिर जाते हैं और बच जाते हैं। तब तो उनके अंदर आत्मविश्वास और अधिक बढ़ जाता है। उनके अंदर से डर खत्म हो जाता हैं और वो दुगने उत्साह , साहस व निडरता के साथ अगले दिन सुबह फिर से छत पर आकर पतंग उड़ाने लगते हैं। फिर तो ऐसा लगने लगता है कि जैसे दौड़ते-भागते बच्चों के चारों ओर पृथ्वी और अधिक तेजी से घूम रही है।
विशेषता –
“सुनहरे सूरज” में अनुप्रास अलंकार है। “पृथ्वी तेज घूमती हुई आती है” में मानवीयकरण अलंकार है। “गिरकर बच जाते हैं” में विरोधाभास अलंकार है।
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