Chitrakoot Main Bharat Class 6 Summary (Bal Ramkatha)
Chitrakoot Main Bharat Class 6 Summary (Bal Ramkatha)
चित्रकूट में भरत कक्षा 6 साराँश (बाल रामकथा)
जिस समय राम अयोध्या से चौदह वर्ष के वनवास को गये , उस समय भरत अपने ननिहाल कैकई राज के यहाँ गए हुए थे। वो अयोध्या में हो रही सभी घटनाओं से बिल्कुल अनजान थे। लेकिन भरत ने सपने में देखा कि समुद्र व वृक्ष सूख गये है। चंद्रमा धरती पर गिर पड़ा है। एक राक्षसी उनके पिता को खींच कर ले जा रही है। वो रथ पर बैठे हैं और रथ गधे खींच रहे हैं। वो अपने इस सपने का अर्थ समझ नही पा रहे थे मगर इस बुरे सपने की वजह से वो काफी परेशान थे।
ठीक उसी समय अयोध्या से घुड़सवार दूत वहां आ पहुंचे और उन्हें तुरंत अयोध्या चलने को कहा। कैकई राज ने भरत को सौ रथों व सेना के साथ विदा किया। नदी , पहाड़ -पर्वतों को पार करते हुए वो आठ दिन बाद अयोध्या पहुंचे। उन्हें अयोध्या वीरान , उजाड़ सी दिखाई दी । अयोध्या पहुंच कर वो सबसे पहले अपने पिता के कक्ष में पहुंचे। पिता को अपने कक्ष में न देखकर वो अपनी माता के कक्ष में गये।
कैकई ने अपने पुत्र भरत को गले लगाया और बताया कि उनके पिता महाराज दशरथ का देहांत हो गया है। यह सुनकर वो अत्यंत दुखी होकर विलाप करने लगे। भरत ने अपनी माता से जब राम के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि महाराज दशरथ ने राम को चौदह वर्ष का वनवास और भरत को राजगद्दी दी है। भरत के पूछने पर कैकई ने उन्हें वरदान वाली सारी बात बताई और उन्हें यह समझाने की कोशिश भी की कि यह सब उसने उसके हित में किया हैं।
यह सुनकर भरत को क्रोध आ गया और वो अपनी माता को भला – बुरा कहने लगे। उन्होंने कहा कि उन्हें पिता को खोकर और बड़े भाई से बिछड़ कर अयोध्या का राजसिंहासन नहीं चाहिए। तब तक वहां अन्य मंत्रीगण और सभासद भी आ गए। भरत ने मंत्रीगण और सभासदों के सामने हाथ जोड़कर अपना पक्ष रखा।
उन्होंने कहा कि वो इस पूरे मामले में निर्दोष हैं । जो कुछ भी हुआ हैं वह सर्वथा गलत हैं। इसीलिए मैं राम के पास जाऊँगा और उन्हें मना कर लाऊँगा। साथ ही उनसे अयोध्या की राजगद्दी संभालने को भी कहूँगा। इसके तुरंत बाद भरत , कौशल्या के महल में गये । उन्होंने कौशल्या को सारी बात बताकर उनसे माफी माँगी। कौशल्या ने भरत को माफ कर अपने गले से लगा लिया।
सुबह तक शत्रुघ्न को पता चल गया था कि मंथरा ने कैकई के कान भरे थे यानि सारे फसाद की जड़ मंथरा ही हैं। वो मंथरा को मार देना चाहते थे परंतु भरत ने उसे बचा लिया। मुनि वशिष्ठ को अयोध्या का राजसिहांसन खाली रखना ठीक नहीं लग रहा था। इसीलिए उन्होंने भरत को राज संभालने के लिए कहा जिसे भरत ने अस्वीकार कर दिया। उन्होंने वन जाकर राम को अयोध्या वापस लाने की बात सबके सामने रखी।
उस समय राम चित्रकूट में पर्णकुटी बनाकर रह रहे थे। भरत के साथ मुनि वशिष्ठ , सभी माताए , मंत्रीगण , सभासद , नगरवासी और अयोध्या की चतुरंगिणी सेना , राम को अयोध्या वापस लाने के लिए चित्रकूट की तरफ चल पड़ी। भरत जब श्रृंगवेरपुर पहुंचे तो निषादराज गुह के मन में संदेह हुआ कि कही भरत , राम पर आक्रमण करने तो नही जा रहे हैं। परंतु सही स्थिति जानकर उन्होंने भरत का स्वागत किया और नौकाओं द्वारा सभी को गंगा नदी पार करा दी।
चित्रकूट में राम भारद्वाज आश्रम से दूर एक पहाड़ी पर पूर्णकुटी बनकर रह रहे थे। अयोध्यावासियों ने रात भारदाज आश्रम में व्यतीत की और सुबह राम के पास जाने के लिए यात्रा प्रारंभ की। राम और सीता उस समय पर्णकुटी में थे और लक्ष्मण बाहर पहरा दे रहे थे। लक्ष्मण ने कोलाहल सुना तो वो एक पेड़ में चढ़ कर देखने लगे। उन्होंने देखा कि अयोध्या की विराट सेना उनकी पर्णकुटी की तरफ ही आ रही हैं।
लक्ष्मण ने पेड़ से चीखकर राम को बताया कि भरत विशाल सेना लेकर हमारी तरफ ही आ रहे हैं। शायद वो एक छत्र राज करने के लिए हमें मार डालना चाहते हैं। राम ने लक्ष्मण से कहा कि भरत ऐसा कर ही नही सकते हैं। वो शायद हमसे मिलने आ रहे होंगे। लक्ष्मण इससे संतुष्ट नही थे मगर राम ने उन्हें धैर्य रखने को कहा।
भरत ने सेना और नगरवासियों को पहाड़ी के नीचे रोक दिया और खुद शत्रुघ्न के साथ नंगे पांव चलकर शिला (ऊँचा पत्थर) में बैठे राम के चरणों में आ गिरे और कुछ नहीं बोले। राम ने भरत और शत्रुघ्न को उठाकर अपने गले से लगा लिया । भरत ने पिता की मृत्यु का समाचार राम को दिया जिससे वो अत्यधिक दुखी हो गये । राम , लक्ष्मण और सीता , तीनों माताओं , गुरुजनों और नगरवासियों से बड़े प्रेम से मिले।
अगले दिन भरत ने राम से अयोध्या वापस चलकर राजग्रहण करने का आग्रह किया । मगर राम ने पिता की आज्ञा का उल्लंघन करने से इनकार कर दिया। राम के मना करने पर भरत ने कहा कि मैं आपके खड़ाऊँ (चरण पादुकाएँ) अपने साथ ले जाना चाहता हूं और उन्हीं की आज्ञा से चौदह वर्ष तक अयोध्या का राज -काज चलाऊंगा । राम ने अपने खड़ाऊँ भरत को दे दिए। अयोध्या पहुंच कर भरत ने उन चरण पादुकाओं का पूजन कर उन्हें अयोध्या के राज सिहांसन में रखा दिया।
इसके बाद भरत ने तपस्वी वस्त्र पहने और नंदीग्राम चले गए। अगले चौदह वर्षों तक वो वही से राजकाज चलाते रहे और राम की प्रतीक्षा करते रहे। वो अयोध्या में कभी नहीं रुके।
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