Explanation Of Meera Ke Pad Class 11 : मीरा के पद

Explanation Of Meera Ke Pad Class 11 :

मीरा के पद का भावार्थ

Explanation Of Meera Ke Pad Class 11

Explanation Of Meera Ke Pad Class 11

Note –

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मीराबाई कृष्ण की अनन्य भक्त थी। उन्होंने अपने आप को पूरी तरह से भगवान कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया था। मीरा श्री कृष्ण को ही अपना सबकुछ मानती थी। सांसारिक माया मोह , राजसी ठाट-बाट व सुख सुबिधाओं को छोड़कर वो कृष्ण भक्ति में लीन रहती थी। इसीलिए उन्होंने कृष्ण भक्ति में अनेक गीतों की रचना की , जो काफी प्रसिद्ध हैं।

इन पदों में भी मीराजी ने अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति और आस्था को प्रकट किया है। ये दोनों पद नरोत्तम दास द्वारा संकलित और संपादित “मीरा मुक्तावली” से लिए गए हैं। 

पद 1

मेरे तो गिरधर गोपाल , दूसरों न कोई
जा के सिर मोर मुकुट , मेरो पति सोई

भावार्थ –

मीराबाई जी कहती हैं कि इस पूरे जगत में मेरे तो अपने सिर्फ गिरधर गोपाल (गिरि यानि पहाड़ को धारण करने वाले या उठाने वाले) यानि श्रीकृष्ण ही है। दूसरा और कोई नहीं है।

फिर वो श्री कृष्ण की पहचान बताते हुए कहती हैं कि जिन्होनें अपने सिर पर मोर पंखी का मुकुट धारण किया है वही मेरे स्वामी यानि सबकुछ है अर्थात मीराजी भगवान श्रीकृष्ण को अपना आराध्य मानकर उनकी आराधना करती हैं। 

छाँड़ि दयी कुल की कानि , कहा करिहै कोई ?
संतन ढिग बैठि- बैठि , लोक-लाज खोयी

भावार्थ –

मीराजी कहती हैं कि मैंने श्रीकृष्ण के प्रेम में अपने कुल की मर्यादा तक को छोड़ दिया है। अब कोई कुछ भी कहे , मुझे उसकी कोई परवाह नहीं है और मैंने साधु संतों के साथ बैठ-बैठ कर अपनी लोक लाज भी खो दी है। यानि मुझे अब कृष्ण के अलावा किसी भी सांसारिक रिश्ते-नाते की कोई परवाह नहीं हैं। 

अंसुवन जल सींचि – सींचि ,  प्रेम – बेलि बोयी
अब त बेलि फैलि गयी , आणंद – फल होयी

भावार्थ –

मीराजी कहती हैं कि श्रीकृष्ण के प्रेम रूपी जिस बेल को मैंने बड़े प्रेम से बोया था और फिर कृष्ण से मिलन की आस में बहने वाले आंसुओं से उसे लगातार सींच कर पल्ल्वित किया था। अब वह बेल बहुत फैल गयी है या बढ़ गई है और अब उसमें से मुझे आनंद रूपी फल प्राप्त हो रहे है। यानि मीरा के मन में कृष्ण भक्ति की भावना लगातार बढ़ रही है। 

दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से विलोयी। 
दधि मथि घृत काढ़ि लियो , डारि दयी छोयी।। 

भावार्थ –

मीराजी कहती हैं कि जिस प्रकार दही को मथकर उसमें से घी निकाल लिया जाता है और छाँस को छोड़ दिया जाता है। ठीक उसी प्रकार मैने भी कृष्ण के प्रेम रूपी दही को अपनी भक्ति रूपी मथानी से बड़े प्रेम से बिलोया हैं। 

और फिर दही के अच्छी तरह से मथ जाने के बाद मैंने उसमें से घी निकाल लिया और छाँस को छोड़ दिया है। यहाँ पर घी कृष्ण से उनके अनन्य प्रेम का प्रतीक है जबकि छास सांसारिक मोह माया का प्रतीक है। यानि उन्होंने सभी सांसारिक मोह माया को छोड़ कर अपने अथक प्रयासों से भगवान कृष्ण को पा लिया है। 

भगत देखि राजी हुयी , जगत देखि रोयी
दासि मीरां लाल गिरधर ! तारो अब मोही 

भावार्थ –

मीराजी कहती हैं कि जब वो ईश्वर की भक्ति में लीन लोगों को देखती हैं तो उनका मन प्रसन्नता से भर जाता है लेकिन जब वो लोगों को सांसारिक मोह माया में डूबा हुआ देखती हैं तो उन्हें बहुत दुख होता है क्योंकि वह जानती हैं कि भगवान की भक्ति में लीन लोगों को तो स्वयं प्रभु इस संसार रुपी भवसागर से पार उतार देंगे मगर सांसारिक मोह माया में फंसे लोगों को कौन पार उतरेगा। 

मीराजी कहती है कि हे !! गिरधर गोपाल मैं तो तुम्हारी दासी हूं। इसीलिए अब आप ही मुझे इस संसार रूपी भवसागर से पार लगाओ। 

 विशेषता  –

इन पदों में मीराबाई का कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव दिखाई देता है। वो कृष्ण को ही अपना सर्वस्व मानती हैं। इन पदों में राजस्थानी और बृज भाषा का मिलाजुला प्रयोग किया है। ये सभी गेय पद हैं। 

अनुप्रास अलंकार –  मोर मुकुट , कुल की कानि , कहा करिहै  , लोक लाज , गिरधर गोपाल  देखने को मिलता हैं। 

 रूपक अलंकार –  प्रेम – बेलि ” यानी कृष्ण प्रेम रूपी बेल और “आणंद – फल ” यानि आनंद रूपी फल। 

 पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार –  “बैठि- बैठि” और “सींचि – सींचि”। 

 पद 2 .

पग घुँघरू बांधि मीरां नाची ,
मैं तो मेरे नारायण सूं , आपहि हो गई साची
लोग कहै , मीरां भइ बावरी ; न्यात कहै कुल- नासी
विस का प्याला राणा भेज्या , पीवत मीरां हाँसी
मीरां के प्रभु गिरधर नागर , सहज मिले अविनासी 

इस पदों में मीरा सभी रीति-रिवाजों व सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर कृष्ण के प्रेम में पूरी तरह से डूब चुकी हैं। वह कृष्ण की भक्ति में इतनी मग्न हो चुकी हैं कि वो अपने पैरों में घुंघरू बाँध कर नाचने लगती हैं।

उनके नाचने – गाने पर उनके परिजनों व अन्य लोगों द्वारा नाराजगी जताने पर मीराबाई कहती हैं कि मैंने तो अपने आप को कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया है। अब तो मैं नारायण यानि श्रीकृष्ण की हो चुकी हूं और उनकी होकर मैं अपने आप ही पवित्र व सच्ची हो गई हूं।

मीराबाई आगे कहती हैं कि लोग कहते हैं कि मीरा पागल हो गई है क्योंकि वह महलों की सुख-सुविधाओं को छोड़कर मंदिर में सन्यासी की भांति अपना जीवन बिताती हैं।  साधु संतों की संगत करती है। मंदिरों में नाचती गाती फिरती है। उसने अपने राज कुल की सभी मर्यादाओं को छोड़कर दिया है। इसीलिए परिवार के लोग अब उसे “कुल का नाश” करने वाली मानते है।

मंदिर-मंदिर भटकती मीराबाई को अपने कुल का नाश करने वाली मानकर मीराबाई के देवर ने उनके लिए विष का प्याला भेजा। लेकिन मीरा की कृष्ण भक्ति में इतनी शक्ति थी कि वह उस विष के प्याले को भी हँसते -हँसते पी गई। विष का मीराबाई पर कोई असर नही हुआ। वह पहले की तरह ही अपने कृष्ण की भक्ति में लीन होकर बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में फिर से नाचने – गाने में मस्त हो गई।  

यहाँ पर “जहर पीने के बाद मीरा हंसती है” । यह वाक्य उन लोगों के ऊपर एक व्यंग्य हैं जो मीरा की भक्ति की शक्ति को पहचान नही पाये थे और उनका मजाक उड़ाते रहते थे। मगर इस घटना के बाद मीरा की कृष्ण पर आस्था और भी बढ़ गई। उनको लगा कि जैसे अब उन्होंने कृष्ण को पा लिया है। इसीलिए मीरा कहती हैं कि मीरा को आज बहुत ही सहजता से उस अविनाशी के दर्शन हो गए हैं यानि उन्हें कृष्ण की प्राप्ति हो गई है। 

विशेषता  –

इन पदों में बृज भाषा व राजस्थानी भाषा का मिलाजुला प्रयोग किया गया है। भाषा एकदम सरल व सहज है। भक्ति रस की प्रधानता देखने को मिलती हैं। सभी पद गेय है।  

अनुप्रास अलंकारक – कहै कुल- नासी ,  गिरधर नागर 

“पग घुँघरू बांधि मीरां नाची” और “लोग कहै , मीरां भइ बावरी” में दृश्य बिंब हैं। 

 

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