Pathik Class 11 Explanation
पथिक कविता का भावार्थ
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Pathik Class 11 Explanation
पथिक कविता के कवि पंडित रामनरेश त्रिपाठी जी हैं । इस कविता में कवि स्वयं को “पथिक” कह कर सम्बोधित करते हैं। कवि नीले आकाश , नीले समुद्र व समुद्रतल पर उगते हुए सूर्य के मनोरम दृश्य और उसके आसपास के पल – पल बदलते अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हैं।
कवि को समुद्र का निडर होकर गरजना , बादलों का बरसना , पक्षियों का चहकना , फूलों का महकना यानि प्रकृति की शांति प्रदान करने वाली यह प्रेम कहानी बहुत ही मधुर , मनोहरी , पवित्र व उज्ज्वल लगती है।
इसीलिए कवि कहते हैं कि इस अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने और इसे अपने हृदय से महसूस करने से बढ़कर सुख और आनंद इस संसार में कही और नही मिलेगा।
काव्यांश 1.
प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला ।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद-माला ।।
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है ।
घन पर बैठ , बीच में बिचरूँ यही चाहता मन है ।।
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि आकाश में बादलों के समूह को देखकर ऐसा लगता है जैसे आकाश में बादल पंक्तिबद्ध होकर हर क्षण एक नया , रंग-बिरंगा और निराला वेश धारण कर सूर्य के समाने थिरक रहे हों या नृत्य कर रहे हों।
नीचे सुंदर व मनोहरी नीला समंदर है तो ऊपर नीला आकाश है। ऐसा सुन्दर व मनमोहक दृश्य देखकर कवि का मन चाहता है कि वो बादलों के ऊपर बैठकर नीले आकाश और नीले समुद्र के बीच में घूमें यानि कवि का मन बादलों की सवारी का आनंद उठाना चाहता है।
काव्य सौंदर्य –
इस कविता में गीतात्मकता है और यह एक छंदबद्ध कविता है। कविता की भाषा एकदम सहज और सरल है। कविता में पर्यायवाची शब्दों का अच्छा प्रयोग किया गया हैं। “नीचे नील” और “बैठ , बीच” में अनुप्रास अलंकार है। यहाँ बादलों का मानवीकरण किया गया है।
काव्यांश 2.
रत्नाकर गर्जन करता है , मलयानिल बहता है ।
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये ! भरा रहता है ।।
इस विशाल , विस्तृत , महिमामय रत्नाकर के घर के –
कोने – कोने में लहरों पर बैठ फिरूँ जी भर के ।।
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि सागर जोरदार गर्जना कर रहा है और मलय पर्वत से आने वाली शीतल सुगंधित हवा बह रही है। और यह सब देखकर हे प्रिये !! मेरा दिल हमेशा साहस व उत्साह से भरा रहता है।
और अब मैं इस विशाल व फैले हुए महिमामयी समुद्र के घर के कोने-कोने को , समुद्र की इन्हीं लहरों पर बैठकर , जी भरकर देखना चाहता हूं। यानि वो समुद्र की लहरों का सवारी कर विशाल समुद्र के कोने-कोने को देखना चाहते हैं।
काव्य सौंदर्य –
“कोने -कोने” में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैं। “विशाल , विस्तृत” में अनुप्रास अलंकार हैं। यहाँ समुद्र का मानवीकरण किया गया है।
काव्यांश 3.
निकल रहा है जलनिधि – तल पर दिनकर-बिंब अधूरा ।
कमला के कंचन-मंदिर का मानो कांत कँगूरा ।।
लाने को निज पुण्य-भूमि पर लक्ष्मी की असवारी ।
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सङक अति प्यारी ।।
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि समुद्र के किनारे खड़े होकर सूर्योदय होता देख रहे है। कवि कहते हैं कि समुद्र की सतह पर उगते हुए सूरज की अधूरी छाया (बिंब) दिखाई दे रही है। यानि सूर्य का आधा हिस्सा समुद्र के तल पर है और आधा हिस्सा सागर की ओट में छुपा हुआ है अर्थात सूरज अभी आधा ही दिखाई दे रहा है ।
उगते हुए सूरज के इस रुप को देखकर कवि को ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सूर्य का यह बिंब लक्ष्मीजी के स्वर्ण मंदिर का एक सुंदर कँगूरा ( मंदिर का शिखर गुंबद ) हो।
और समुद्र तल पर पड़ने वाली सूरज की सुनहरी किरणों की आभा कवि को सोने की सड़क की भांति दिखाई दे रही है। जिसे देखकर कवि को ऐसा प्रतीत होता है जैसे लक्ष्मीजी की सवारी अपनी पुण्य – पावन भूमि में लाने के लिए समुद्र ने इस सोने की सड़क का निर्माण किया हो।
काव्य सौंदर्य –
“रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सङक अति प्यारी” में समुद्र का मानवीकरण किया गया है।काव्यांश में चित्रात्मक भाषा और दृश्य बिंब है। “स्वर्ण-सङक” और “कांत कँगूरा” में अनुप्रास अलंकार है।
काव्यांश 4.
निर्भय , दृढ़ , गंभीर भाव से गरज रहा सागर है ।
लहरों पर लहरों का आना सुन्दर , अति सुन्दर है ।।
कहो यहाँ से बढ़कर सुख क्या पा सकता है प्राणी ?
अनुभव करो हृदय से , हे अनुराग-भरी कल्याणी ।।
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि समुद्र बहुत ही निडरता से साथ , दृढ़ होकर और बड़ी ही गंभीरता के साथ गरजना कर रहा है। और समुद्र में एक लहर के बाद दूसरी लहर का आना बहुत ही सुंदर दिखाई दे रहा है।
कवि आगे अपने प्रिय को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे प्रिया , तुम इस प्राकृतिक सौंदर्य को अपने हृदय से महसूस करो और फिर बताओ कि इससे बढ़कर सुख और आनंद इस संसार में कही और मिलेगा। हे प्रिय ! तुम अपने प्रेम भरे हृदय से इस सुख का अनुभव करो।
काव्य सौंदर्य –
“क्या पा सकता है प्राणी ?” में प्रश्न अलंकार है। काव्यांश में सम्बोधन शैली का प्रयोग किया है।यहाँ समुद्र का मानवीकरण किया गया है।
काव्यांश 5.
जब गंभीर तम अर्द्ध-निशा में जग को ढक लेता है ।
अंतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता है ।।
सस्मित – वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है ।
तट पर खङा गगन-गंगा के मधुर गीत गाता है ।।
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि आधी रात में जब घना अंधकार पूरे संसार को ढक लेता है।और अंतरिक्ष की छत यानि पूरा आकाश सुंदर – सुंदर जगमगाते तारों से जगमगा उठता है। तब इस सुंदर प्राकृतिक दृश्य को देखने के लिए मुस्कुराते हुए मुख से इस जगत का स्वामी अर्थात सूर्य धीमी – धीमी गति से आता है।
और तट पर खड़ा होकर वह आकाशगंगा के सौंदर्य को निहार कर उसकी सुंदरता के मीठे-मीठे गीत गाता है। अर्थात धीरे-धीरे रात्रि बीतने लगती है और सूर्योदय का समय नजदीक आने लगता है।
काव्य सौंदर्य –
“गगन-गंगा” और “गीत गाता” में अनुप्रास अलंकार है। यहाँ प्रकृति का मानवीकरण किया गया है।इस काव्यांश में संस्कृत के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।
काव्यांश 6.
उससे भी विमुग्ध हो नभ में चंद्र विहँस देता है ।
वृक्ष विविध पत्तों – पुष्पों से तन को सज लेता है ।।
पक्षी हर्ष सँभाल न सकते मुग्ध चहक उठते हैं ।
फूल साँस लेकर सुख की सानंद महक उठते हैं ।।
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि सूर्य जिस आकाशगंगा के सौंदर्य को निहार कर उसकी सुंदरता के मीठे-मीठे गीत गाता है। उसी आकाशगंगा के अद्भुत सौंदर्य से मोहित होकर चंद्रमा भी आकाश में हंस देता है अर्थात आकाश में चंद्रमा भी अपनी चाँदनी बिखेरने लगता है। वृक्ष भी तरह-तरह के फूल- पत्तों से अपने आपको सजा लेते हैं।
और इस मनमोहक दृश्य को देखकर पक्षियों से भी अपनी खुशी संभाले नहीं सँभलती है। इसीलिए वो भी चहक उठते हैं। फूल भी महक-महक कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। महकते हुए उन फूलों को देखकर ऐसा लगता है जैसे कि वो सुख की सांस ले रहे हों और पूरे वातावरण को खुशबू से भर रहे हों ।
काव्य सौंदर्य –
यहाँ चंद्रमा का मानवीकरण किया गया है। “पत्तों – पुष्पों” में अनुप्रास अलंकार है। तत्स्म शब्दों का अच्छा प्रयोग किया गया हैं।
काव्यांश 7.
वन , उपवन , गिरि , सानु , कुंज में मेघ बरस पङते हैं ।
मेरा आत्म-प्रलय होता है , नयन नीर झङते हैं ।।
पढ़ो लहर , तट , तृण , तरु , गिरि , नभ , किरन , जलद पर प्यारी ।
लिखी हुई यह मधुर कहानी विश्व – विमोहनहारी ।।
भावार्थ –
कवि (पथिक) समुद्र किनारे खड़े होकर समुद्र व उसके आस – पास के अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य को निहार रहे है। कवि कहते हैं कि प्रकृति के इस अद्भुत सौंदर्य को देखकर मेघ (बादल) भी अपना धैर्य खोकर वनों , उपवनों , पहाड़ों , समतल भूमि , कुंजों (बेल व झड़ियों वाली जगह) पर बरस पड़ते हैं और बरस – बरस कर अपने मनोभावों को व्यक्त कर रहे हैं। प्रकृति के इस मनोहारी रूप को देखकर पथिक भी भाव विभोर हो जाता है। और उसके आंखों से आंसू बहने लगते हैं।
आगे कवि अपनी प्रिया को संबोधित करते हुए कहते है कि हे प्रिय !! समुद्र की लहरों , सागर के तटों , तिनकों , पेड़ों , पहाड़ों , तारों से सुशोभित आकाश में , सूर्य की किरणों और बरसते मेघों आदि पर लिखी हुई इस मधुर कहानी को तुम भी पढ़ो और इसे अनुभव करो।
काव्य सौंदर्य –
“नयन नीर , विश्व – विमोहनहारी” में अनुप्रास अलंकार है। संस्कृत के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।
काव्यांश 8.
कैसी मधुर मनोहर उज्ज्वल है यह प्रेम – कहानी ।
जी में है अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी ।।
स्थिर , पवित्र , आनंद – प्रवाहित , सदा शांति सुखकर है ।
अहा ! प्रेम का राज्य परम सुंदर , अतिशय सुन्दर है ।।
भावार्थ –
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि प्रकृति की यह प्रेम कहानी बहुत ही मधुर , मनोहरी और उज्ज्वल है। इसीलिए मेरा मन करता है कि मैं इस प्रेम कहानी का एक अक्षर बन जाऊँ और अक्षर बनकर पूरे विश्व की बाणी बन जाऊँ अर्थात कवि प्रकृति की इस सुंदर प्रेम कहानी को अपने शब्दों में व्यक्त करना चाहते हैं ताकि पूरा संसार प्रकृति की इस प्रेम कहानी को सुन सके और आनंदित हो सके।
कवि आगे कहते हैं कि इस प्रकृति में सदा स्थिर , पवित्र व आनन्द देने वाली सुखकारी शांति छाई रहती है और प्रकृति में चारों ओर प्रेम का ही राज्य दिखाई देता है और प्रेम का यह राज्य बहुत ही सुंदर है।
काव्य सौंदर्य –
“मधुर मनोहर” और “सदा शांति सुखकर” में अनुप्रास अलंकार है।
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