Kabir Ke Pad Class 11 Explanation : कबीर के पद

Kabir Ke Pad Class 11 Explanation :

Kabir Ke Pad Class 11 Explanation

कबीर के पद कक्षा 11 का भावार्थ

Kabir Ke Pad Class 11 Explanation

Note –

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कबीरदासजी अद्वैतवाद के सिद्धांत को मानते हैं। वो निर्गुण , सर्वव्यापक , अविनाशी , निराकार परब्रह्म के उपासक थे। इसीलिए वो कहते थे कि ईश्वर एक ही हैं और उसी ईश्वर की सत्ता इस पूरी सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। वो आत्मा को भी परमात्मा का ही अंश मानते हैं। और अपनी इसी बात को वो अपने पहले पद में कई उदाहरणों के जरिये समझाने की कोशिश करते हैं।

अपने दूसरे पद में कबीरदासजी ईश्वर प्राप्ति के लिए बाह्य आडंबरों का विरोध करते हैं। वो कहते हैं कि ईश्वर हमारे अंदर ही समाया हैं। वह बहुत सरलता से हमें प्राप्त हो जाता हैं। बस जरूरत हैं अपने अंदर झाँक कर देखने की , ईश्वर के उस सत्य को जानने की। उसके लिए मूर्तिपूजा करना , माला जपना , आसन लगा कर साधना में बैठना आदि जैसे बाह्य आडंबरों की जरूरत नहीं है।

कबीरदासजी दवारा रचित ये दोनों पद जयदेव सिंह और वासुदेव सिंह द्वारा संकलित और संपादित “कबीर वाङ्मय – खंड 2 (सबद) से लिए गए हैं।

Kabir Ke Pad Class 11 Explanation

पद 1 .

हम तौ एक एक करि जांनां  ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां ।।

भावार्थ – 

कबीरदास कहते हैं कि हम तो एक ही ईश्वर को जानते हैं जिसने इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है और जो इस जगत के हर प्राणी मात्र के अंदर समाया है यानी जगत और ब्रह्म एक ही है।

जो परमात्मा के इस सत्य को नही जान पाये है और उसे एक नही बल्कि दो मानते है वो नर्क के भागी होते हैं। यानि आत्मा व परमात्मा एक ही है और पूरे संसार में एक ही ईश्वर की सत्ता है। जो लोग ईश्वर को अलग-अलग मानते हैं। वो नर्क के अधिकारी हैं या उनको नर्क ही प्राप्त होगा।

एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां । 

एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां ।।

भावार्थ – 

कबीरदास कहते हैं कि एक ही हवा है। एक ही पानी है और एक ही ईश्वर हैं और इस संसार के हर इंसान के भीतर उसी ईश्वर का अंश ज्योति रूप में समाया है।

कबीरदास आगे कहते हैं कि जैसे कुम्हार एक ही मिट्टी से अनेक तरह के बर्तन बनाता है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर रुपी कुम्हार ने भी एक ही मिट्टी से अनेक तरह के मनुष्य बनाये है। अर्थात सभी मनुष्यों का शरीर पंचतत्व (जल , वायु , अग्नि , आकाश और पृथ्वी) से बना है। जो मनुष्य के मर जाने पर मिट्टी में मिल जाता हैं।

जैसे बाढी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई ।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई ।।

भावार्थ – 

लकड़ी के भीतर आग हर वक्त मौजूद रहती है जो सिर्फ लकड़ी के जलने पर ही दिखाई देती हैं। कबीरदास कहते हैं कि जिस प्रकार बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है लेकिन उसके भीतर की आग को काट नहीं सकता है।

ठीक उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भले ही मर जाता है क्योंकि वह नश्वर हैं लेकिन उसके भीतर की आत्मा अमर है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है अर्थात परमात्मा सभी जीवों के अंदर आत्मा के रूप में बसता है।

कबीरदास आगे कहते हैं कि सभी प्राणियों के ह्रदय के भीतर वही ईश्वर अनेक रुप धर कर व्याप्त है।

माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां । 
निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां ।।

भावार्थ – 

इन पंक्तियों में कबीर प्रभु भक्ति में लीन हो गये हैं। उनके प्रेम में डूब गए है और वो इस सांसारिक मोह को छोड़ चुके हैं।

इसीलिए कबीरदास कहते हैं कि हे!! मनुष्य तू इस संसार के झूठे माया मोह , भौतिक सुख सुबिधाओं के प्रति आकर्षित होकर व्यर्थ में अभिमानी हो रहा हैं क्योंकि ये सब तो नश्वर हैं।

कबीरदास कहते हैं कि इसीलिए संसार के सभी माया मोह के बंधनों से मुक्त होकर , निर्भय होकर जियो और प्रभु भक्ति में लीन होकर उसे जानने व समझने की कोशिश करो। जिस तरह कबीर जान चुके हैं कि आत्मा परमात्मा एक है और सभी उसी परमात्मा की संतान हैं। इसीलिए वो संसारिक मायामोह से दूर होकर और निर्भय होकर एक दीवाने की तरह प्रभु भक्ति में लीन हो चुके हैं।

विशेषता –

इस पद में सधुक्कडी भाषा का प्रयोग किया गया हैं। “एक एक” में यमक अलंकार है। क्योंकि पहले एक का अर्थ संख्या से हैं जबकि दूसरे एक का अर्थ परमात्मा से है। इसमें पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार भी है। क्योंकिएक एक” दो बार आया हैं। 

“काष्ट ही काटै” , “सरूपै सोई” और “कहै कबीर” में अनुप्रास अलंकार हैं। पद तुकांत हैं।

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पद 2 .

सतों देखत जग बौराना।   
साँच कहौं तो मारन धावै , झूठे जग पतियाना ।।

भावार्थ – 

उपरोक्त पंक्तियों में कबीरदासजी कहते हैं कि हे !! संत लोगों देखो इस संसार के लोग पागल हो गये है। क्योंकि अगर उनके सामने कोई सच्ची बात कहता हैं तो वो उसे मारने के लिए दौड़ते है और झूठी बातों पर बहुत जल्दी विश्वास कर लेते है।

नेमी देखा धरमी देखा , प्रात करै असनाना ।
आतम मारि पखानहि पूजै , उनमें कछु नहिं ज्ञाना ।।

भावार्थ – 

कबीरदास कहते हैं कि उन्होंने ऐसे बहुत से लोग देखे हैं जो नियमों का पालन करते हैं। धर्म के अनुसार अनुष्ठान करते हैं। सुबह उठकर स्नान करते हैं। परंतु वो अपनी आत्मा को मारकर पत्थर यानि मूर्ति की पूजा करते हैं।

अर्थात वो अपनी अंतरात्मा की आवाज को नहीं सुनते हैं और बाह्य आडंबरों का खूब दिखावा करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को कोई भी ज्ञान नहीं होता हैं। हमारे अंदर ही परमात्मा समाया हैं। उसको ही जानना व समझना हैं। इसका उनको पता ही नहीं होता हैं।

बहुतक देखा पीर औलिया , पढ़ै कितेब कुराना ।
कै मुरीद तदबीर बतावैं  , उनमें उहै जो ज्ञाना ।।

भावार्थ – 

कबीरदास कहते हैं कि उन्होंने ऐसे बहुत से पीर-औलिया देखे हैं जो अपनी धार्मिक पुस्तकों को पढ़कर अपने आप को ज्ञानी समझने लगते हैं। लेकिन उस पुस्तक में दिए ज्ञान के सच्चे अर्थों को वो आत्मसात भी नहीं कर पाते हैं और अपने शिष्यों को ईश्वर प्राप्ति के तरह-तरह के उपाय बताने लगते हैं। जबकि उन्हें खुद भी आत्मतत्व या परमात्मा का ज्ञान नहीं होता है।

आसन मारि डिंभ धरि बैठे , मन में बहुत गुमाना।
पीपर पाथर पूजन लागे , तीरथ गर्व भुलाना ।।

भावार्थ – 

कबीरदास कहते हैं कि कुछ लोग जो आसन लगाकर साधना में बैठ जाते हैं और अपने आप को ईश्वर के सच्चे भक्त व परम ज्ञानी मानकर अहंकार में डूबे रहते हैं। सही अर्थों में उनको कोई ज्ञान नहीं होता हैं।

जो व्यक्ति पीपल और मूर्ति की पूजा करते हैं और तीर्थ यात्रायें करते हैं मगर उनका मन अहंकार से भरा रहता हैं। वो इस अहंकार के कारण यह भूल जाते हैं कि ईश्वर की प्राप्ति इन सब बाह्य आडंबरों से नहीं होती हैं। ये सब तो दिखावा मात्र है।

टोपी पहिरे माला पहिरे , छाप तिलक अनुमाना ।
साखी सब्दहि गावत भूले , आतम खबरि न जाना ।।

भावार्थ – 

कबीरदास कहते हैं कि कुछ लोग टोपी व माला पहन कर और माथे पर तिलक लगाकर अपने आप को धर्म का सच्चा अनुयाई कहते हैं। वो सच्चे अर्थों में धर्म के अनुयाई नहीं है। क्योंकि वो तो अपने गुरु के दिए हुए सदवचन भी भूल गये है। उन्हें तो अपनी आत्मा का बोध तक भी नहीं है। यानि वो अपनी आत्मा की आवाज तक नहीं सुनते हैं। और सही गलत में भी फर्क करना भूल जाते हैं।

हिन्दू कहैं मोहि राम पियारा , तुर्क कहै रहिमाना । 
आपस में दोउ लरि लरि मूए , मर्म न काहू जाना ।।

भावार्थ – 

कबीरदास कहते हैं कि हिंदू कहता है कि मुझे राम प्यारा है। मुस्लिम कहते हैं कि मुझे रहीम प्यारा है।  दोनों आपस में लड़ लड़ कर मर गए परंतु परमात्मा का सही ज्ञान कोई नहीं जान पाया हैं।

घर-घर मंतर देत फिरत हैं , महिमा के अभिमाना ।
गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े , अंत काल पछिताना ।। 

भावार्थ – 

कबीरदास कहते हैं कि कुछ गुरु जो अपने आप को बहुत ज्ञानी समझते है और अपने ज्ञान के अहंकार में घर घर जाकर ईश्वर प्राप्ति का मंत्र बताते हैं।  ऐसे अज्ञानी व अभिमानी गुरुओं के शिष्य भी अज्ञानी होते हैं। ऐसे गुरु अपने शिष्यों के साथ इस दुनिया रूपी भव सागर में डूब जाते हैं। अर्थात उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती हैं और अंत कल में उन्हें पछताना पड़ता है।

कहैं कबीर सुनो हो संतो  , ई सब मर्म भुलाना । 
केतिक कहौं कहा नहिं मानै  , सहजै सहज समाना ।। 

भावार्थ – 

कबीरदास जी कहते हैं कि हे संतजनो  !! बाहरी आडंबर करने वाले इन लोगों ने ईश्वर के सत्य को भुला दिया है। इन लोगों को कितना भी समझाओ मगर ये लोग मानते ही नहीं हैं।अर्थात इनको कुछ भी समझाने का कोई फायदा नहीं। जबकि सत्य तो यह है कि ईश्वर बहुत ही सहजता व सरलता से ही मिल जाते है। उसे प्राप्त करने के लिए किसी बाह्य आडंबर की आवश्यकता नहीं है।

विशेषता –

इस पद में सधुक्कडी भाषा का प्रयोग किया गया हैं। सभी पद तुकांत हैं।और पदों में गेयता हैं

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