Balgobin Bhagat Class 10 Summary: बालगोबिन भगत

Balgobin Bhagat Class 10 Summary ,

Balgobin Bhagat Class 10 Summary Hindi Kshitij , बालगोबिन भगत पाठ का सारांश कक्षा 10 हिन्दी क्षितिज 

Balgobin Bhagat Class 10 Summary

बालगोबिन भगत पाठ का सारांश

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Balgobin Bhagat Class 10 Summary

इस पाठ के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी जी हैं। बालगोबिन भगत कहानी की शुरुवात कुछ इस तरह होती हैं। ….

बालगोबिन भगत लगभग साठ वर्ष के एक मँझोले कद (मध्यम कद) के गोरे चिट्टे व्यक्ति थे। उनके सारे बाल सफेद हो चुके थे। वे बहुत कम कपड़े पहनते थे। कमर में सिर्फ एक लंगोटी और सिर में कबीरपंथियों के जैसी कनफटी टोपी।

बस जाड़ों में एक काली कमली ऊपर से औढ लेते थे । उनके मस्तक पर हमेशा एक रामानंदी चंदन का टीका लगा रहता था और गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल सी माला पड़ी रहती थी। 

वो खेती-बाड़ी करते थे। उनके पास एक साफ-सुथरा मकान भी था जिसमें वह अपने बेटे और बहू के साथ रहते थे। लेकिन वो आचार , विचार , व्यवहार व स्वभाव से साधु थे। वो संत कबीर को अपना आदर्श मानते थे। कबीर के उपदेशों को उन्होंने पूरी तरह से अपने जीवन में उतार लिया था। वो कबीर को “साहब” कहते थे और उन्हीं के गीतों को गाया करते थे।

वो कभी झूठ नहीं बोलते थे । सबसे खरा व्यवहार रखते थे। दो टूक बात कहने में संकोच नहीं करते थे लेकिन किसी से खामखाह झगड़ा मोल भी नहीं लेते थे। किसी की चीज को कभी नहीं छूते थे और ना ही बिना पूछे व्यवहार में लाते ।

उनके खेतों में जो कुछ भी अनाज पैदा होता , पहले वो उसे अपने सिर पर लाद कर चार कोस दूर कबीरपंथी मठ पर ले जाकर वहाँ भेंट स्वरूप दे देते थे। उसके बाद कबीरपंथी मठ से उन्हें प्रसाद स्वरूप जो भी अनाज वापस मिलता , उसे घर लाते और उसी से अपना गुजर-बसर करते थे।

वो कबीर के पदों को इतने मधुर स्वर में गाते थे कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता था। कबीर के सीधे साधे पद भी उनके कंठ से निकलकर सजीव हो उठते थे।

आषाढ़ के माह में जब रिमझिम बारिश होती थी। पूरा गांव धान की रोपाई के लिए खेतों पर रहता था। कोई हल चला रहा होता , तो कहीं कोई धान के पौधों की रोपाई कर रहा होता था। बच्चे धान के पानी भरे खेतों में उछल कूद कर रहे होते थे और औरतें कलेवा  (सुबह का नाश्ता ) लेकर मेंड़ पर बैठी रहती थी। बड़ा ही मनमोहक दृश्य होता था। 

जब आसमान बादलों से घिरा रहता था और ठंडी ठंडी हवाएं चल रही होती थी। ऐसे में भगत के गीतों के मधुर स्वर कान में पड़ते थे जो कबीर के पदों को बड़े ही मनमोहक अंदाज में गाते हुए अपने खेतों में पूरी तरह से कीचड़ में सने हुए धान की रोपाई करते थे।

उनका मधुर गान सुनकर ऐसा लगता था मानो उनके गले से निकल कर संगीत के कुछ मधुर स्वर ऊपर स्वर्ग की तरफ जा रहे हैं तो कुछ मधुर स्वर पृथ्वी में खड़े लोगों के कान की तरफ आ रहे हैं।

खेलते हुए बच्चे भी उनके गानों में झूम उठते थे। औरतें गुनगुनाने लगती थी। हल चलाने वाले लोगों के पैर भी अब ताल से उठने लगते थे और रोपनी करने वालों की अंगुलियां एक अजीब क्रम से चलने लगती थी। सच में बालगोबिन भगत के संगीत में जादू था जादू।

भादों की काली अंधेरी रातें में जब सारा संसार सोया रहता था , तब बाल गोविंद भगत का संगीत जाग रहा होता था। कार्तिक माह के आते ही बाल गोविंद भगत की प्रभातियाँ शुरू हो जाती थी , जो फागुन तक चलती थी।

इन दिनों वे सवेरे उठ कर गांव से दो मील दूर नदी में जाकर स्नान करते। स्नान से लौट कर गांव के बाहर ही पोखरे के ऊंचे भिंडे पर , अपनी खँजड़ी ले जाकर बैठते और गाना गाने लगते। और गर्मियों में तो वो अपने घर के आंगन में ही आसन जमा कर बैठते और अपनी मंडली के साथ गाना गाते थे।

बाल गोविंद भगत की संगीत साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनके इकलौते बेटे की मृत्यु हो गई। उन्होंने बड़े प्यार से अपने बेटे की शादी की। घर में एक सुंदर व सुशील बहू आई , जिसने भगत को दुनियादारी और घर गृहस्थी के झंझट से मुक्त कर दिया।

इकलौते बेटे की मृत्यु  के बाद उन्होंने अपने मृत बेटे की देह को आंगन में एक चटाई पर लेटा कर उसे एक सफेद कपड़े से ढँक दिया और उसके ऊपर कुछ फूल और तुलसीदल बिखरा दिए और सिर के सामने एक दीपक जला दिया। फिर उसके सामने ही जमीन पर आसन लगा गीत गाते रहे , वह भी पूरी तल्लीनता के साथ।

उनकी बहू अपने पति की मृत्यु पर काफी दुखी थी इसीलिए खूब रो रही थी। लेकिन बालगोबिन भगत पूरी तल्लीनता के साथ गाना गाए जा रहे थे और अपनी बहू को भी रोने के बजाय उत्सव मनाने को कह रहे थे। वो कह रहे थे कि बिरहिनी आत्मा आज परमात्मा से जा मिली है। और यह सब आनंद की बात है। इसीलिए रोने के बजाय उत्सव मनाना चाहिए। 

बेटे की चिता को आग भी उन्होंने अपनी बहू से ही लगवाई और श्राद्ध की अवधि पूरी होते ही बहू के भाई को बुलाकर बहू को उसके साथ भेज दिया और साथ में यह भी आदेश दिया कि बहू की दूसरी शादी कर देना।

बहू भगत को छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी क्योंकि वह जानती थी कि बेटे की मृत्यु के बाद वही उनका एकमात्र सहारा है। वह उनकी सेवा करना चाहती थी। लेकिन भगत अपने निर्णय पर अटल रहे और उन्होंने अपनी बहू को भाई के साथ जाने के लिए विवश कर दिया।

बालगोबिन भगत की मृत्यु उन्हीं के अनुरूप हुई। वो हर वर्ष अपने गांव से लगभग 30 कोस दूर गंगा स्नान करने पैदल ही जाते थे। घर से खाना खाकर जाते और फिर घर लौट कर ही खाना खाते।  घर पहुंचने तक उपवास में ही रहते थे । रास्ते भर गाते बजाते रहते और प्यास लगती तो पानी पी लेते हैं।

अब बुढ़ापा उन पर हावी था। इस बार जब वो गंगा स्नान से लौटे तो , उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं थी। किंतु वह अपने नेम व्रत को कहां छोड़ने वाले थे। घर लौट कर उन्होंने अपनी वही पुरानी दिनचर्या जारी रखी। लोगों ने उन्हें आराम करने को कहा लेकिन वो सबको हंस कर टाल देते थे।

उस दिन भी उन्होंने संध्या में गीत गाया था । लेकिन सुबह के वक्त लोगों ने उनका गीत नहीं सुना। जाकर देखा तो पता चला कि बालगोविंद भगत नहीं रहे , सिर्फ उनका पुंजर (बेजान शरीर) पड़ा है। 

रामवृक्ष बेनीपुरी का जीवन परिचय 

इस पाठ के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन 1899 में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गांव में हुआ था। बचपन में ही उनके माता पिता का निधन हो गया जिस कारण उनका बचपन अभावों  , कठिनाइयों और संघर्षों में बीता।

दसवीं तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे सन् 1920 में भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गए। इस दौरान वो कई बार भी जेल गए। उनकी मृत्यु सन 1968 में हुई।

रचनाएं

रामवृक्ष बेनीपुरी की रचनाएं महज 15 वर्ष की अवस्था में ही अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी। वो बेहद प्रतिभाशाली पत्रकार भी थे।उनकी रचनाओं में स्वाधीनता की चेतना , मनुष्यता की चिंता और इतिहास का युगानुरूप व्याख्या है। विशिष्ट शैलीकर होने के कारण उन्हें “कलम का जादूगर” भी कहा जाता है। 

संपादन कार्य –

उन्होंने अनेक दैनिक , साप्ताहिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया  जिनमें तरुण भारत , किसान मित्र , बालक , युवक , योगी , जनता , जनवाणी और नई धारा प्रमुख हैं।

साहित्य

बेनीपुरी रचनावली – उनका पूरा साहित्य बेनीपुरी रचनावली के आठ खंडों में प्रकाशित है।

उपन्यास –  पतियों के देश में

कहानी –  चिता के फूल

नाटक –  अंबपाली

रेखा चित्र –  माटी की मूरतें

यात्रा वृतांत – पैरों में पंख बांधकर 

संस्मरण – जंजीरें और दीवारें 

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