Ek kahani yeh bhi Class 10 Summary ,
Ek Kahani Yeh Bhi Class 10 Summary
एक कहानी यह भी का सारांश कक्षा 10
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“एक कहानी यह भी” पाठ की लेखिका मन्नू भंडारी जी हैं। मन्नू भंडारी जी ने इस कहानी के जरिए अपने माता – पिता के व्यक्तित्व व उनकी कमियों – खूबियों को उजागर किया है। इसी के साथ ही उन्होनें स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी सक्रिय भागीदारी का भी उल्लेख इस पाठ के जरिए किया है।
पाठ की शुरुआत करते हुए लेखिका कहती हैं कि मेरा जन्म तो मध्य प्रदेश के भानपुरा गांव में हुआ था। लेकिन मेरे बचपन व युवा अवस्था का शुरुवाती समय अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के एक दो मंजिले मकान में बीता। जिसके ऊपरी मंजिल में उनके पिताजी रहते थे। जिनका अधिकतर समय पुस्तकों , अखबारों और पत्रिकाओं को पढ़ने में ही बीतता था। नीचे की मंजिल में लेखिका अपने भाई – बहनों व अपनी अनपढ़ मां के साथ रहती थी।
यहां पर लेखिका अपनी मां को “व्यक्तित्वहीन” कहती हैं क्योंकि उनकी मां सुबह से देर रात तक घर के कामकाज व घर के सदस्यों की इच्छाओं को पूरा करने में ही अपना अधिकतर समय बिताती थी। उनकी अपनी कोई व्यक्तिगत जिंदगी व इच्छाएं नहीं थी।
लेखिका कहती हैं कि उनके पिता अजमेर आने से पहले इंदौर में रहा करते थे। जहां उनकी अच्छी सामाजिक प्रतिष्ठा व मान – सम्मान था। वो कांग्रेस पार्टी और समाज सेवा से भी जुड़े थे। वो शिक्षा को बहुत अधिक महत्व देते थे। इसीलिए 8 – 10 बच्चों को अपने घर में रखकर पढ़ाया करते थे जो आगे चलकर ऊंचे- ऊंचे पदों पर आसीन हुए।
अपने खुशहाली के दिनों में वो काफी दरियादिल हुआ करते थे। हालाँकि लेखिका ने यह सब अपनी आँखों से नहीं देखा , सिर्फ इसके बारे में सुना था। लेकिन एक बहुत बड़े आर्थिक नुकसान के कारण उन्हें इंदौर छोड़कर अजमेर में बसना पड़ा। अजमेर आकर लेखिका के पिता ने अपने अकेले के बलबूते व हौसले से अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश (विषयवार) के अधूरे काम को पूरा किया। यह अपनी तरह का पहला और अकेला शब्दकोश था। इस शब्दकोश से उन्हें खूब नाम और शोहरत मिली लेकिन पैसा नहीं मिला जिस कारण उनकी आर्थिक स्थिति खराब होती चली गई।
पैसे की तंगी , अधूरी महत्वाकांक्षायें , नवाबी आदतें , मान – सम्मान व प्रसिद्धि के छिन जाने के डर ने उन्हें चिड़चिड़ा व क्रोधी बना दिया। वो अक्सर अपना क्रोध मां पर उतारते थे । अपने लोगों के विश्वासघात के कारण अब वो किसी पर भी सहज रूप से विश्वास नहीं कर पाते थे। हर किसी को शक की नजर से देखते थे। लेखिका बताती हैं कि उनके पिता की कमियों और खूबियों ने उनके व्यक्तित्व पर भी खासा असर डाला। उनके व्यवहार के कारण ही लेखिका के अंदर हीन भावना ने जन्म लिया। जिससे आज तक वो उबर नही पायी हैं।
लेखिका का रंग काला था और वो बचपन में काफी कमजोर थी। लेकिन उनके पिता को गोरा रंग बहुत पसंद था। संयोग से उनसे लगभग 2 वर्ष बड़ी उनकी अपनी बड़ी बहन सुशीला खूब गोरी , स्वस्थ व हंसमुख स्वभाव की थी। उनके पिता अक्सर उनकी तुलना सुशीला से करते थे जिस कारण उनके अंदर धीरे-धीरे हीन भावना जन्म लेने लगी।
लेखिका कहती हैं कि इतनी शौहरत , नाम , मान – सम्मान पाने के बाद भी , आज तक मैं उस हीन भावना से उबर नहीं पाई हूं। मुझे आज भी अपनी मेहनत से कमाई सफलता , नाम और प्रसिद्ध पर विश्वास ही नही होता हैं। मुझे लगता हैं जैसे यह सब मुझे यूँ ही तुक्के से मिला है। अपनों के विश्वासघात ने लेखिका के पिता को शक्की स्वभाव का बना दिया । वो हर किसी को शक की नजर से देखते थे और लेखिका का उनसे हमेशा किसी ने किसी बात पर टकराव चलता रहता था। लेकिन फिर भी लेखिका के पिता के व्यवहार ने उनके पूरे जीवन पर गहरा प्रभाव डाला।
लेखिका की अनपढ़ माताजी उनके पिता के बिल्कुल विपरीत स्वभाव की महिला थी। उन्होंने अपनी माताजी के धैर्य व सहनशक्ति की तुलना धरती से की है। उनकी माताजी उनके पिता की हर गलत बात को भी आसानी से सहन कर जाती थी। यही नही वो अपने बच्चों की उचित – अनुचित फरमाइशों को अपना फर्ज समझ कर सहज भाव से पूरा करती थी।
उनकी माताजी ने अपने जीवन में कभी किसी से कुछ नहीं मांगा। बस सबको दिया ही दिया। लेखिका व उनके भाई – बहनों को अपनी मां से प्रेम कम , सहानुभूति ज्यादा थी। यहां पर लेखिका कहती हैं कि इतना सब कुछ करने के बावजूद भी मेरी मां कभी भी मेरी आदर्श नहीं बन पाई क्योंकि उनका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं था। उनकी अपनी कोई निजी राय नहीं थी। उनकी अपनी कोई व्यक्तिगत जिंदगी नहीं थी। वो हमेशा दूसरों के लिए ही जीती थी।
इसके बाद लेखिका बताती हैं कि पांच भाई-बहनों में वह सबसे छोटी थी। जब वो महज 7 वर्ष की थी तब उनकी सबसे बड़ी बहन की शादी हो गई जिसकी उन्हें बस धुंधली सी याद है। उन्होंने अपना बचपन अपनी बड़ी बहन सुशीला व पास – पड़ोस की सहेलियों के साथ तरह – तरह के खेल खेलते हुए बिताया।
लेकिन उनके खेलने व घूमने का दायरा सिर्फ उनके घर – आंगन व मोहल्ले तक ही सीमित था। यहां पर लेखिका यह भी बताती हैं कि उनकी कम से कम एक दर्जन कहानियों के पात्र भी इसी मोहल्ले के हैं जहां उन्होंने अपनी किशोरावस्था से युवावस्था में कदम रखा। 16 वर्ष व मैट्रिक पास होने के बाद सन 1944 में उनकी बड़ी बहन सुशीला की शादी कोलकाता हो गई और उनके दोनों बड़े भाई भी आगे की पढ़ाई के लिए बाहर चले गए। इसके बाद लेखिका घर में अकेली रह गई। तब पहली बार लेखिका के पिता का ध्यान लेखिका पर गया।
लेखिका के पिता चाहते थे कि लेखिका घर व रसोई के काम – काज से दूर रहकर सिर्फ पढ़ाई पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करें। उस समय उनके घर आए दिन राजनीतिक पार्टियां होती रहती थी। लेखिका जब घर आए मेहमानों को चाय नाश्ता देने जाती तो उनके पिता उन राजनीतिक पार्टियों की बहस सुनने के लिए उन्हें भी वही बैठा लेते थे।
वो चाहते थे कि लेखिका उनके साथ बैठकर उनकी बहस को सुने , ताकि देश में क्या हो रहा है इस बारे में उन्हें भी पता चल सके। हालाँकि सन 1942 में जब वो दसवीं क्लास में पढ़ती थी। तब तक उन्हें इन सब चीजों की कोई ख़ास समझ नहीं थी।
लेकिन सन 1945 में जैसे ही उन्होंने दसवीं पास कर “सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल” में “फर्स्ट ईयर” में प्रवेश लिया तो वहां उनका परिचय हिंदी की प्राध्यापिका (Teacher) शीला अग्रवाल से हुआ जिन्होंने लेखिका का परिचय “साहित्य की दुनिया” से कराया।
शीला अग्रवाल ने उन्हें कई बड़े – बड़े लेखकों की किताबें पढ़ने को दी। इसके बाद लेखिका ने कई प्रसिद्ध लेखकों की किताबों को पढ़ना और समझना आरंभ किया।
लेखिका कहती है कि शीला अग्रवाल ने न सिर्फ उनके साहित्य का दायरा बढ़ाया बल्कि देश के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाने को भी प्रेरित किया। शीला अग्रवाल की बातों का उन पर ऐसा असर हुआ कि सन 1946 – 47 में जब पूरा देश स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहा था। तब लेखिका भी पूरे जोश व उत्साह के साथ उस आंदोलन में कूद पड़ी।
लेखिका के पिता यह तो चाहते थे कि देश दुनिया में क्या हो रहा है। इस सब के बारे में लेखिका जानें। लेकिन वो सड़कों पर नारे लगाती फिरें , लड़कों के साथ गली -गली , शहर – शहर घूमकर हड़तालें करवाएं । यह सब अपने आप को आधुनिक कहने वाले उनके पिता को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं था। जिस कारण उनके और उनके पिता के बीच अक्सर टकराव चलता रहता था।
लेखिका कहती हैं कि यश , मान – सम्मान , प्रतिष्ठा उनके पिता की दुर्बलता (कमजोरी) थी। उनके पिता के जीवन का बस एक ही सिद्धांत था कि आदमी को इस दुनिया में कुछ विशिष्ट बनकर जीना चाहिए। कुछ ऐसे काम करने चाहिए जिससे समाज में उसका नाम , सम्मान और प्रतिष्ठा हो। और पिता की इसी दुर्बलता ने उनको दो बार पिता के क्रोध से बचा लिया।
पहली घटना का जिक्र करते हुए लेखिका कहती हैं कि एक बार उनके कॉलेज के प्रिंसिपल ने उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने हेतु उनके पिता को पत्र भेजकर कॉलेज में बुलाया। पत्र पढ़ते ही पिता को क्रोध आना स्वाभाविक था । इसीलिए वो अपना गुस्सा माँ पर निकाल कर कॉलेज पहुंच गए।
लेकिन जब वो वापस घर पहुंचे तो काफी खुश थे। लेखिका को इस सब पर विश्वास ही नहीं हुआ। दरअसल लेखिका उस समय तक कॉलेज की सभी लड़कियों की लीडर बन चुकी थी । उनका कॉलेज में खूब रौब चलता था।
सभी लड़कियां उनके एक इशारे पर क्लास छोड़कर मैदान में आ जाती थी और नारेबाजी करने लगती थी। जिससे कॉलेज की प्रिंसिपल काफी परेशान हो गई थी। इसीलिए उन्होंने लेखिका के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का मन बनाया। लेकिन लेखिका के पिता उनकी इस प्रसिद्धि से काफी प्रसन्न थे।
एक और घटना याद करते हुए लेखिका कहती हैं कि आजाद हिंद फौज के मुकदमे के वक्त सभी कॉलेज , स्कूल , दुकानों के लिए हड़ताल का आवाहन था। जो लोग हड़ताल में शामिल नहीं हो रहे थे। स्कूल के छात्र- छात्राओं का एक समूह जाकर उनसे जबरदस्ती हड़ताल करवा रहा था।
उसी शाम , अजमेर के सभी विद्यार्थी चौपड़ यानि मुख्य बाजार के चौराहे पर इकट्ठा हुए। और फिर भाषण बाजी शुरू हुई। इसी बीच लेखिका के पिता के एक दकियानूसी (पुरानी विचार धारा के लोग) मित्र ने लेखिका के खिलाफ उनके कान भर दिये।
हड़ताल वगैरह से फुरसत पाकर जब लेखिका रात को घर पहुंची तो उनके पिता के साथ उनके धनिष्ठ मित्र व शहर के बहुत ही प्रतिष्ठित व सम्मानित व्यक्ति डॉ अंबालाल जी बैठे थे। जैसे ही उनकी नजर लेखिका पर पड़ी तो , उन्होंने बहुत ही गर्मजोशी से उनका स्वागत किया और उनके द्वारा चौपड़ में दिए भाषण की खुले हृदय से प्रशंशा की । जिसे सुनकर उनके पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया।
और अंत में लेखिका कहती हैं कि सन 1947 के मई महीने में शीला अग्रवाल को कॉलेज वालों ने लड़कियों को भड़काने और कॉलेज का अनुशासन बिगड़ने के आरोप में कॉलेज छोड़ने का नोटिस थमा दिया था। और किसी अप्रिय धटना से बचने के लिए जुलाई में थर्ड ईयर की कक्षाएं बंद कर लेखिका समेत दो तीन छात्राओं का कॉलेज में प्रवेश भी बंद करा दिया।
लेकिन लेखिका कहाँ मानने वाली थी। उन्होंने अपने साथियों के साथ कॉलेज के बाहर इतना हंगामा किया कि कॉलेज वालों को आखिरकार अगस्त में दुबारा थर्ड ईयर की कक्षाएं चलानी पड़ी। और शीला अग्रवाल को वापस कॉलेज में लेना पड़ा। लेखिका कहती हैं कि दोनों खुशियों (यानि शीला अग्रवाल के केस में अपनी जीत की खुशी , दूसरा देश को आजादी मिलने की खुशी ) एक साथ मिली । और “देश की आजादी” तो शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी यानि 15 अगस्त 1947 ।
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