Mata Ka Anchal Class 10 Summary :
Mata Ka Anchal Class 10 Summary
माता का आंचल पाठ का सारांश
Note –
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“माता का आंचल” के लेखक शिवपूजन सहाय हैं। दरअसल “माता का अंचल” शिवपूजन सहाय के सन 1926 में प्रकाशित उपन्यास “देहाती दुनिया” का एक छोटा सा अंश (छोटा सा भाग) हैं।
इस कहानी में लेखक ने माता पिता के वात्सल्य , दुलार व प्रेम , अपने बचपन , ग्रामीण जीवन तथा ग्रामीण बच्चों द्वारा खेले जाने वाले विभिन्न खेलों का बड़े सुंदर तरीके से वर्णन किया है। साथ में बात-बात पर ग्रामीणों द्वारा बोली जाने वाली लोकोक्तियों का भी कहानी में बड़े खूबसूरत तरीके से इस्तेमाल किया गया है। यह कहानी मातृ प्रेम का अनूठा उदाहरण है। यह कहानी हमें बताती है कि एक नन्हे बच्चे को सारी दुनिया की खुशियां , सुरक्षा और शांति की अनुभूति सिर्फ मां के आंचल तले ही मिलती है।
कहानी की शुरुवात कुछ इस तरह से होती हैं।
शिवपूजन सहाय के बचपन का नाम “तारकेश्वरनाथ” था मगर घर में उन्हें “भोलानाथ” कहकर पुकारा जाता था। भोलानाथ अपने पिता को “बाबूजी” व माता को “मइयाँ ” कहते थे। बचपन में भोलानाथ का अधिकतर समय अपने पिता के सानिध्य में ही गुजरता था। वो अपने पिता के साथ ही सोते , उनके साथ ही जल्दी सुबह उठकर स्नान करते और अपने पिता के साथ ही भगवान की पूजा अर्चना करते थे।
वो अपने बाबूजी से अपने माथे पर तिलक लगवाकर खूब खुश होते और जब भी भोलानाथ के पिताजी रामायण का पाठ करते , तब भोलानाथ उनके बगल में बैठ कर अपने चेहरे का प्रतिबिंब आईने में देख कर खूब खुश होते। पर जैसे ही उनके बाबूजी की नजर उन पर पड़ती तो , वो थोड़ा शर्माकर , थोड़ा मुस्कुरा कर आईना नीचे रख देते थे। उनकी इस बात पर उनके पिता भी मुस्कुरा उठते थे।
पूजा अर्चना करने के बाद भोलानाथ राम नाम लिखी कागज की पर्चियों में छोटी -छोटी आटे की गोलियां रखकर अपने बाबूजी के कंधे में बैठकर गंगा जी के पास जाते और फिर उन आटे की गोलियां को मछलियों को खिला देते थे।
उसके बाद वो अपने बाबूजी के साथ घर आकर खाना खाते। भोलानाथ की मां उन्हें अनेक पक्षियों के नाम से निवाले बनाकर बड़े प्यार से खिलाती थी। भोलानाथ की माँ भोलानाथ को बहुत लाड -प्यार करती थी। वह कभी उन्हें अपनी बाहों में भर कर खूब प्यार करती , तो कभी उन्हें जबरदस्ती पकड़ कर उनके सिर पर सरसों के तेल से मालिश करती ।
उस वक्त भोलानाथ बहुत छोटे थे। इसलिए वह बात-बात पर रोने लगते। इस पर बाबूजी भोलानाथ की मां से नाराज हो जाते थे। लेकिन भोलानाथ की मां उनके बालों को अच्छे से सवाँर कर , उनकी एक अच्छी सी गुँथ बनाकर उसमें फूलदाऱ लड्डू लगा देती थी और साथ में भोलानाथ को रंगीन कुर्ता व टोपी पहना कर उन्हें “कन्हैया” जैसा बना देती थी।
भोलानाथ अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खूब मौजमस्ती और तमाशे करते। इन तमाशों में तरह-तरह के नाटक शामिल होते थे। कभी चबूतरे का एक कोना ही उनका नाटक घर बन जाता तो , कभी बाबूजी की नहाने वाली चौकी ही रंगमंच बन जाती।
और उसी रंगमंच पर सरकंडे के खंभों पर कागज की चांदनी बनाकर उनमें मिट्टी या अन्य चीजों से बनी मिठाइयों की दुकान लग जाती जिसमें लड्डू , बताशे , जलेबियां आदि सजा दिये जाते थे। और फिर जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के बने पैसों से बच्चे उन मिठाइयों को खरीदने का नाटक करते थे। भोलानाथ के बाबूजी भी कभी-कभी वहां से खरीदारी कर लेते थे।
ऐसे ही नाटक में कभी घरोंदा बना दिया जाता था जिसमें घर की पूरी सामग्री रखी हुई नजर आती थी। तो कभी-कभी बच्चे बारात का भी जुलूस निकालते थे जिसमें तंबूरा और शहनाई भी बजाई जाती थी। दुल्हन को भी विदा कर लाया जाता था। कभी-कभी बाबूजी दुल्हन का घूंघट उठा कर देख लेते तो , सब बच्चे हंसते हुए वहां से भाग जाते थे।
बाबूजी भी बच्चों के खेलों में भाग लेकर उनका आनंद उठाते थे। बाबूजी बच्चों से कुश्ती में जानबूझ कर हार जाते थे । बस इसी हँसी – खुशी में भोलानाथ का पूरा बचपन मजे से बीत रहा था। एक दिन की बात है सारे बच्चे आम के बाग़ में खेल रहे थे। तभी बड़ी जोर से आंधी आई। बादलों से पूरा आकाश ढक गया और देखते ही देखते खूब जम कर बारिश होने लगी। काफी देर बाद बारिश बंद हुई तो बाग के आसपास बिच्छू निकल आए जिन्हें देखकर सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे।
संयोगवश रास्ते में उन्हें मूसन तिवारी मिल गए। भोलानाथ के एक दोस्त बैजू ने उन्हें चिढ़ा दिया। फिर क्या था बैजू की देखा देखी सारे बच्चे मूसन तिवारी को चिढ़ाने लगे। मूसन तिवारी ने सभी बच्चों को वहाँ से खदेड़ा और सीधे पाठशाला चले गए। पाठशाला में उनकी शिकायत गुरु जी से कर दी। गुरु जी ने सभी बच्चों को स्कूल में पकड़ लाने का आदेश दिया। सभी को पकड़कर स्कूल पहुंचाया गया। दोस्तों के साथ भोलानाथ को भी जमकर मार पड़ी।
जब बाबूजी तक यह खबर पहुंची तो , वो दौड़े-दौड़े पाठशाला आए। जैसे ही भोलानाथ ने अपने बाबूजी को देखा तो वो दौड़कर बाबूजी की गोद में चढ़ गए और रोते-रोते बाबूजी का कंधा अपने आंसुओं से भिगा दिया। गुरूजी की मान मिनती कर बाबूजी भोलानाथ को घर ले आये।
भोलानाथ काफी देर तक बाबूजी की गोद में भी रोते रहे लेकिन जैसे ही रास्ते में उन्होंने अपनी मित्र मंडली को देखा तो वो अपना रोना भूलकर मित्र मंडली में शामिल हो गए। मित्र मंडली उस समय चिड़ियों को पकड़ने की कोशिश कर रही थी। भोलानाथ भी चिड़ियों को पकड़ने लगे। चिड़ियाँ तो उनके हाथ नहीं आयी। पर उन्होंने एक चूहे के बिल में पानी डालना शुरू कर दिया।
उस बिल से चूहा तो नहीं निकला लेकिन सांप जरूर निकल आया। सांप को देखते ही सारे बच्चे डर के मारे भागने लगे। भोलानाथ भी डर के मारे भागे और गिरते-पड़ते जैसे-तैसे घर पहुंचे। सामने बाबूजी बैठ कर हुक्का पी रहे थे। लेकिन भोलानाथ जो अधिकतर समय अपने बाबूजी के साथ बिताते थे , उस समय बाबूजी के पास न जाकर सीधे अंदर अपनी मां की गोद में जाकर छुप गए।
डर से काँपते हुए भोलानाथ को देखकर मां घबरा गई । माँ ने भोलानाथ के जख्मों की धूल को साफ कर उसमें हल्दी का लेप लगाया। डरे व घबराए हुए भोलानाथ को उस समय पिता के मजबूत बांहों के सहारे व दुलार के बजाय अपनी मां का आंचल ज्यादा सुरक्षित व महफूज लगने लगा ।
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