Chipko Movement :चिपको आंदोलन की पूरी जानकारी

What is Chipko Movement ,Slogan of Chipko Movement,Causes of Chipko Movement,Aim of Chipko Movement,Reason of Chipko Movement, क्या हैं चिपको आंदोलन ? इसे “महिलाओं का आंदोलन” क्यों कहा जाता हैं ?

Chipko Movement

Slogan of Chipko Movement

क्या है जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार,

मिट्टी पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।

यही चिपको आंदोलन का प्रमुख वाक्य था।

Chipko Movement

 चित्र आभार-विकिपीडिया

चिपको आंदोलन (Chipko Movement) उत्तराखंड के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक हैं जिसमें महिलाओं ने खुल कर भाग लिया और इस आंदोलन को सफल व ऐतिहासिक बनाया।अगर इसे “महिलाओं का सफल आंदोलन” कहें तो अतिश्योक्ति नही होगी।

चिपको आंदोलन का उद्देश्य (Aim of Chipko Movement)

जंगलों व जंगल में उगने वाली अमूल्य वन संपत्ति (पेड़ पौधे ,जडीबूटी) की सुरक्षा करना।बिना नुकसान व बिनाश का आंकलन करे वैगर अंधाधुंध हो रही पेड़ों की कटाई पर लगाम लगाना ताकि हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरणीय संतुलन बना रहे।

और वनों से स्थानीय लोगों को उनकी जरूरत की चीजों मिलती रहें।जैसे पशुओं के लिए चारा ,जलावन को लकड़ी, लधु उद्योगों के लिए वनों से मिलने वाला कच्चा माल (जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता हैं)।

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क्यों पड़ा इस आंदोलन का नाम “चिपको आंदोलन”(Information on Chipko Movement)

इस आंदोलन में महिलाओं एक दूसरे का हाथ पकड़ कर पेड़ों के चारों ओर गोल घेरा बनाकर खड़ी हो जाती थी या पेड़ों को पकड़ कर उससे चिपक जाती थी।ताकि उन्हें कोई काट न सकें।इसीलिए इस आंदोलन को “चिपको आंदोलन/Chipko Movement” पड़ा।यह आंदोलन प्रकृति ,मानव व पर्यावरण के बीच के अनोखे संबंध को दर्शाता हैं।

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 गूगल डूडल

चिपको आंदोलन की शुरुवात का अहम कारण (Reason of Chipko Movement)

चिपको आंदोलन (Chipko Movement) को शुरू करने में कुछ कारणों ने मुख्य भूमिका निभाई।

  1. पेड़ों की सुरक्षा के लिए स्थानीय लोगों द्वारा चलाये गये आंदोलन की शुरुवात 1970 के दशक में हुई।लेकिन इससे पहले 1970 में ठीक इसी इलाके में अलकनंदा में आई भयंकर बाढ़ ने भारी तबाही मचाई थी।जिसमें पांच बड़े पुल में बाढ़ की भेंट चढ़ गये ,हजारों मवेशी मर गये या बाढ़ में बह गये।
  2. लाखों रुपए की लकड़ी और ईंधन का नुकसान हुआ। लगभग 400 किलोमीटर का इलाका पूरी तरह से बर्बाद हो गया। और ऊपरी गंगा नहर के रेते व मिट्टी से भर जाने के कारण लगभग 9 लाख एकड़ भूमि में सिंचाई का पानी उपलब्ध नह़ी पाया। जिस कारण सूखे के हालात पैदा हो गये।और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन भी ठप हो गया।
  3. बाढ़ से हुए इस नुकसान के बाद स्थानीय लोगों वनों, पेड़ों व प्रर्यावरण का महत्व समझ में आ गया था।
  4. आंदोलन को धार देने में ब्रिटिश कालीन वन अधिनियम के प्रावधानों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसके तहत वनों के आस-पास रहने वाले स्थानीय लोगों को उनकी रोजमर्रा की आवश्यकताओं या उनके लधु उद्द्योगो के लिए कच्चा माल से बंचित कर दिया गया था।
  5. 1962 में गोपेश्वर (चमोली जिले के मुख्यालय) के कुछ स्थानीय नवयुवकों ने “दशौली ग्राम स्वराज्य संघ”बनाया था ताकि जंगलों से मिलने वाले कच्चे माल के उपयोग से लोगों को रोजगार मिल सके।
  6. इस संस्था में अंगू के पेड़ की लकड़ी से सामान बनाये जाते थे।जो उन्हें आस पास के जंगलों से आसानी से उपलब्ध हो जाते थे लेकिन सन 1972 उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने (तब उत्तराखंड नही बना था) इस संस्था को अंगु के पेड़  देने से मना कर दिया।
  7. भारत-चीन की सीमा पर सुरक्षा के लिए सडकों का निर्माण किया गया जिसमें पेड़ों हरे भरे पेड़ों को काटा गया।
  8. विकास की अंधी दौड़ के चक्कर में जंगल की सुरक्षा के मापदंडों का ध्यान नही रखा गया।जैसे सडक निर्माण, जल बिधुत परियोजनाओं को शुरू करते वक्त,खनन का कार्य हो या पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गयी योजनाओ को लागू वक्त।हर बार अंधाधुंध पेड़ो की कटाई बिना नुकसान का आंकलन करे की गई जिसका खमियाजाना विनाश के रूप में स्थानीय लोगों ने झेला।
  9. बाहरी ठेकेदारों व जंगल माफियाओं द्वारा अमूल्य वन संपत्ति का लगातार दोहन जो स्थानीय लोगों के रोष का करण बना।

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चिपको आंदोलन के शुरुवात की वजह (Causes of Chipko Movement)

उत्तर प्रदेश के वन विभाग द्वारा स्थानीय लोगों को तो अंगु के पेड़ देने से मना करना इस आन्दोलन की शुरुवात की वजह बना।क्योंकि स्थानीय लोगों को तो अंगु के पेड़ देने से मना कर दिया।

लेकिन साइमंड कंपनी ( इलाहाबाद) को मंडल वन के अंगू के 2451 पेड़ काटने की इजाजत दे दी।यह वन गोपेश्वर से मात्र एक किलोमीटर दूरी पर स्थित हैं।साइमंड कंपनी खेल से जुड़े सामानों को बनाती थी।

अंगू की लकड़ी के गुण 

अंगू की लकड़ी बेहद हल्की लेकिन अत्यधिक मजबूत होती हैं। जिस कारण किसान अपनी खेती-बाड़ी के लिए कई तरह के औजार इसी लकड़ी से बनाना पसंद करते थे। खास कर खेती के बक्त बैलों के कंधों पर रखा जाने वाले हल को सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता था।क्योंकि यह बेहद हल्की होती हैं।पहाड़ के मौसम और जमीन के हिसाब से भी यह लकड़ी टिकाऊ होती हैं।

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चिपको आंदोलन का केंद्र गाँव

चिपको आंदोलन (Chipko Movement) की जननी बना रेनी (चमोली) गांव जो ऋषि गंगा और गंगा के संगम पर बसा है।उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने इसी क्षेत्र के 2451 पेड़ों काटने की इजाजत ठेकेदरों को दे दी थी।इसके बाद प्रसिद्द पर्यावरणप्रेमी चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 14 फरवरी 1974 को गांव में एक सभा का आयोजन किया गया।

इसमें लोगों को मानव जीवन व धरती को सुरक्षित रखने के लिए पेड़ों, जंगलों की अहमियत समझाई गई।इसके बाद 15 मार्च को स्थानीय लोगों ने व 24 मार्च को विद्यार्थियों ने रैली निकाल कर पेड़ों की कटाई का विरोध किया।लोगों ने एक दुसरे को जागरूक कर इस आन्दोलन में शामिल कर लिया।

सरकार ने दिखाई चालाकी पर काम न आई

लोगों की एकजुटता व विशाल रैलियों ने सरकार की नींद उड़ा दी।तब सरकार ने चालाकी दिखाई और एक ओर उसने चमोली के लोगों को उनकी मूमि अधिग्रहण (जो सेना के लिए किया गया था) का मुआवजा देने के लिए चमोली में बुला लिया।

और दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय गोपेश्वर में बुलाया लिया।इस तरह जिस दिन गांव के पुरुष मुआवजा लेने गये।उसी दिन सही मौके देख ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में पेड़ काटने हेतु पहुँच गये।

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हिम्मत नहीं हारी महिलाएं (Who started Chipko Movement)

इस वक्त गांव में सिर्फ महिलाएं ह़ी थी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।27 महिलाएं ने गौरा देवी के नेतृत्व में चिपको आंदोलन शुरु कर दिया।वो बिना डरे पेड़ों से चिपक गई और खुल कर विरोध करना शुरू कर दिया।

जिसके फलस्वरूप ठेकेदार पेड़ों पर कुल्हाडी नही चला पाये।परिणाम स्वरूप ठेकेदार और वन अधिकारीयों को वापस लौटना पड़ा।26 मार्च 1974 को हुआ यह आन्दोलन भारत का “पहला पर्यावरण आंदोलन” था।

अहिंसक आंदोलन 

पूरी तरह से अहिंसक यह आंदोलन (Chipko Movement) धीरे धीरे यह आंदोलन पूरे उत्तराखंड में फैल गया।जगह जगह पर लोगों ने जंगलो को काटने का विरोध शांतिपूर्वक करना शुरू कर दिया।जिसमें महिलाओं ने अपनी छोटी छोटी टोलियों बनाकर जंगलों की रक्षा का जिम्मा खुद अपने हाथों पर ले लिया।सीमा देवी जैसी महिलाओं ने गांव गांव में घूम कर लोगों को जागृत किया।

और लोकगीत व कहानियां के जरिये भी लोगों को संदेश दिया गया कि जंगल और पेड़ उनके लिए कितने महत्वपूर्ण है।गढवाल में लोगों को जागरूक करने का जिम्मा गाँधी जी की शिष्य सरला वेन और विमला वेन ने निभाई तो कुमाऊं में राधा भट्ट में इस आंदोलन का नेतृत्व किया।सन 1972 से 1979 तक इस आंदोलन में लगभग 150 गांव जुड़ चुके थे ।

चिपको आंदोलन से जुड़े व्यक्ति 

प्रसिद्द पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा, धनश्याम शैलानी ,धूम सिंह नेगी, गोविन्द सिंह रावत  और चंडी प्रसाद भट्ट के अलावा जिन महिलाओं ने चिपको आंदोलन में सक्रिय भूमिका मीरा वेन, विमला देवी, रुपसा देवी, बचनी देवी ,हिमा देवी ,महिमा देवी, गौरा देवी ,गंगा देवी, इतवारी देवी, छमुन देवी और कई महिलाएं हैं।

मीरा बेन महात्मा गांधी की शिष्या थी जो 40 के दशक में हिमालय क्षेत्र में बस गई थी। उन्होंने ऋषिकेश और हरिद्वार के बीच में एक मवेशी केंद्र “पशुलोक “की स्थापना की। उन्होंने काफी समय गढ़वाल में प्रर्यावरण के अध्ययन में गुजार दिया।

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आंदोलन की प्रमुख मांग ( Point of Chipko Movement)

  • हिमालयी वन क्षेत्र के हरे-भरे पेड़ों व जंगलों की कटाई को 10 से 15 साल के लिए स्थगित कर दिया जाय।
  • हिमालयी वन क्षेत्र में कम से कम 60% मूमि क्षेत्र मे नये पेड़ लगाये जाय।
  • मृदा और जल संरक्षण करने वाले पेड़ों को ज्यादा लगाया जाय।
  • स्थानीय लोगों को उनकी जरूरत का सामान बनाने के लिए जंगलों से कच्चा माल उपलब्ध हो।

आंदोलन का निकला सुखद परिणाम 

इस आंदोलन (Chipko Movement) का सुखद परिणाम यह रहा की लोगों की मांगों को मानते हुए 9 मई 1974 को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया।जिसके अध्यक्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान के प्रमुख श्री विरेंद्र कुमार थे।काफी अध्यनन के बाद समिति को गांव वालों की मांगे जायज लगी।

अक्टूबर 1976 उन्होंने सरकार को एक रिपोर्ट भेजी जिसमें कहा गया कि 12,00 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में व्यवसायिक कटाई पर 10-15 वर्ष की रोक लगा दी जाए।और साथ ह़ी साथ इस क्षेत्र के वृक्षारोपण का कार्य किया जाए।उत्तर प्रदेश सरकार ने इन सुझावों को स्वीकार कर लिया।और 13,371 हेक्टेयर के वन क्षेत्र की कटाई भी रोक दी।

राष्ट्रीय वन नीति का निर्माण 

उत्तराखंड में शुरू हुए इस चिपको आंदोलन (Chipko Movement) की बड़ी सफलता यह थी कि पहली बार राजनीतिज्ञोंं व विचारकों को इस विषय पर गंभीरता से सोचना पड़ा।जिसके परिणाम स्वरूप भारत में 1980 “वन संरक्षण अधिनियम” और केंद्र सरकार में “पर्यावरण मंत्रालय” का गठन भी हुआ।

और 1980 में ह़ी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने हिमालई क्षेत्रों में और समुद्र तल से 1000 मीटर से ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों में वृक्षों की कटाई के लिए 15 वर्ष की रोक लगा दी थी।जिससे पर्यावरणीय संतुलन बना रहे व वनों का संरक्षण हो सके। देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के आंदोलनों के लिए यह आन्दोलन एक मिशाल बना।

पूरे भारत में फैला चिपको आंदोलन

इस आंदोलन की शुरुवात भले ह़ी उत्तराखंड में हुई थी लेकिन यह धीरे धीरे पूरे भारत तक पहुँच गया।यह आंदोलन पूर्व में बिहार,पश्चिमी राजस्थान, उत्तर में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में कर्नाटक और मध्य में विंध्य ,पश्चिमी घाट और विंध्य पर्वतमाला में वृक्षों की कटाई को रोकने में सफल रहा।

साथ ही यह लोगों की आवश्यकताओं और पर्यावरण के प्रति अधिक सचेत “प्राकृतिक संसाधन नीति” को भी बनाने में भी सफल रहा।

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चिपको आंदोलन को मिला “सम्यक जीविका पुरुस्कार” 

1987 में इस आंदोलन (Chipko Movement) को सम्यक जीविका पुरस्कार (Right Livelihood Award) से सम्मानित किया गया था।

इस आंदोलन में महिला और पुरुष के जुड़ने की अलग अलग वजह

ऐसा माना जाता हैं कि इस आंदोलन में शुरुवात में महिलायों और पुरुष अलग-अलग कारणों से जुड़े।महिलाएं जंगलों में अपनी निर्भरता के चलते इस आंदोलन से जुड़ी।क्योंकि उन्हें इन्ही जंगलों से पशुओं के लिए चारा,जलावन के लिए लकड़ी ,खेती करने के औजार के साथ साथ अनेक वस्तुओं मिलती थी।

सो उनके लिए जंगल बचाना अपने अस्तित्व को बनाए रखने जैसा था।वास्तव में पहाड़ की महिलाओं का जंगल और पेड़-पौधों से गहरा संबंध है।

और पुरुष इस आंदोलन से अपने व्यावसायिक हितों के कारण जुड़े।क्योंकि साठ के दशक के अंत तक पहाड़ों में स्थानीय सहकारी समितियों की मदद से कई लघु उद्योगों की स्थापना के गई।द्शौली , पुरोला, गंगोत्री, वेरीनाग, कत्यूर, ताकुला गावों में “ग्राम स्वराज संघ” की स्थापना की गई थी। जिसके तहत गांवों में आरा मशीन व पेड़ों से गोंद निकालने की छोटी छोटी फैक्ट्रियो चल रही थी।

और इनके माध्यम से स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता था।बाहरी ठेकेदारोंं के द्वारा पेड़ो के काटे जाने से कच्चे माल का संकट पैदा हो सकता था।

चिपको आंदोलन में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका

चिपको आंदोलन में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही।या यूं कहें कि चिपको आंदोलन सफल ह़ी हुआ महिलाओं के कारण तो ये ज्यादा ठीक रहेगा।यह वास्तविक में एक महिला आंदोलन था।क्योंकि इसमें अधिकांश कार्य महिलाओं ने ह़ी किया।

गौरी देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने कुल्हाड़ी लेकर पेड़ काटने आये ठेकेदारों को यह कहकर जंगल से भगा दिया कि यह “जंगल हमारा मायका है हम इसे कटने नहीं देंगे“।विमला वेन व राधा भट्ट के साथ कई और महिलाओं ने पैदलयात्रा कर लोगों को जागरूक करने का काम किया तो हिमा देवी ने गांव गाँव धूम कर महिलाओं को यह संदेश दिया कि पेड़ो व जंगलों को बचाना अब उनकी जिम्मेदारी हैं।

वही 1977 में टिहरी के अदवाणी गांव में बचनी देवी जंगलों की कटाई को लेकर अपने पति के खिलाफ ही खड़ी हो गई।क्योंकि यहाँ के स्थानीय जंगल से पेड़ों को काटने का ठेका बचनी देवी के ग्राम प्रधान पति को ह़ी मिला था।

बचनी देवी का साथ गांव की अन्य महिलाओं ने दिया।इन सब ने वन में जाकर पेड़ों को राखी बांध का उनकी रक्षा का संकल्प लिया।और अपने अथक प्रयासों से चिपको आंदोलन को सफल बनाया।यह भी कहा जाता हैं कि अगर महिलाएं इस आंदोलन से न जुडती तो यह आंदोलन इतना सफल व ऐतिहासिक नही होता।

यह आंदोलन महिलाओं के साहस, दृढसंकल्प, निडरता और अथक प्रयासों का पर्याय हैं ।नारी सशक्तिकरण का इससे अच्छा उदाहरण और क्या होगा।

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सुंदरलाल बहुगुणा “वृक्ष मित्र” व गौरा देवी “चिपको वूमन” की उपाधि से सम्मानित 

चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा को “वृक्ष मित्र” और गौरा देवी को “चिपको वूमन”के नाम से भी जाना जाता है। इस आंदोलन में इन दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

चिपको आंदोलन में सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे लोगों की भूमिका व उनके कार्यों को देखते हुए उन्हें “रमन मैग्सेसे “,”गांधी शांति पुरस्कार”, “पद्म भूषण” और “पद्मविभूषण” जैसे सर्वोच्च सम्मानों से सम्मानित किया गया।

चिपको वूमन गौरा देवी का जीवन परिचय (Chipko Women Gaura Devi )

गौरा देवी का जन्म 1925 में उत्तराखंड के लाता गांव में हुआ था।उस वक्त गांव में लडकियों को स्कूल नही भेजा जाता था जिस कारण गौरा देवी अक्षर ज्ञान हासिल नही कर पाई लेकिन उनको रामायण ,महाभारत,गीता का अच्छा ज्ञान था।

उन दिनों लडकियों की शादी बहुत छोटी उम्र में कर दी जाती थी सो इनकी शादी मात्र 12 वर्ष की उम्र में नजदीकी गांव के किसान मेहरबान सिंह के साथ कर दी।लेकिन दुर्भाग्यवश शादी के 10 साल के बाद ह़ी मेहरबान सिंह की मृत्यु हो गई और बच्चों व पारिवार की जिम्मेदारियां गौरा देवी के कंधों पर आ गई।लेकिन साहसी गौरा देवी सारी बाधाओं को पार कर गयी।

Gaura Devi

गौरा देवी महिला मंडल की अध्यक्षा भी रही।सन 1974 में उन्होंने आलाकांडा में 2500 पेड़ो को काटने का विरोध किया।और पेड़ों से चिपक कर उनकी रक्षा की।इसीलिए उनको “चिपको वूमन” कहा जाता है।गौरा देवी के अनुसार “यह जंगल हमारी माता का घर जैसा है।यहां से हमें फल,फूल,सब्जी मिलती हैं।अगर यहाँ के हरे भरे पेड़ काटोगे तो निश्चित रूप से बाढ़ आएगी“।

गौरा देवी का निधन 66 वर्ष की उम्र में 4 जुलाई 1991 में हो गया था। इनको चिपको आंदोलन की “जननी ” माना जाता है।

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“वृक्ष मित्र” सुंदरलाल बहुगुणा

सुंदर लाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी 1927 को उत्तराखंड के मरोड़ा गाँव में हुआ था।प्रारंभिक शिक्षा के बाद वो बी.ए करने हेतु लाहौर चले गये।सुंदरलाल बहुगुणा जी हमेशा सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहते थे। उन्होंने दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान व दलितों को मंदिर में प्रवेश करने के अधिकार के लिए आंदोलन शुरू किया था।

इनकी पत्नी श्रीमती विमला नौटियाल भी इनके कार्यो में सहयोग करती थी।उन्होंने सिलीआरा में “पर्वतीय नवजीवन मंडल” की स्थापना की थी। 1971 में शराब की दुकानों को खुलने से रोकने के लिए सुंदरलाल बहुगुणा ने 16 दिन का अनशन भी किया था।लेकिन चिपको आंदोलन से जुड़ने के बाद उन्हें एक प्रर्यावरण प्रेमी के रूप में पहचान मिली। और उनको “वृक्ष मित्र” की उपाधि से सम्मानित किया गया।

सुंदरलाल बहुगुणा

सुंदरलाल बहुगुणा के अनुसार “पेड़ों को काटने की अपेक्षा में लगाना अति महत्वपूर्ण है”। उनके कार्यों से प्रभावित होकर 1980 में अमेरिकन  सोसाएटी “Friend Of Nature”ने भी उन्हें सम्मानित किया। इनको “प्रर्यावरण गांधी” के नाम से भी जाना जाता है।

चिपको आंदोलन जैसे-जैसे बढ़ता गया।सुंदरलाल बहुगुणा ने “सुरक्षित हिमालय” की ओर लोगों का ध्यान खींच कर इसे आंदोलन में शामिल कर लिया।अब वो लोगों को सुरक्षित हिमालय का महत्व समझाते हैं और हिमालय व उसकी अनमोल प्राकृतिक संम्पदा को बचाने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं।

इसी सन्दर्भ में 1981 और 1983 के बीच सुंदरलाल बहुगुणा ने हिमालय के क्षेत्र में 5000 किलोमीटर की तक  आंदोलन को आगे बढ़ाया।सुंदरलाल बहुगुणा ने कई और क्षेत्रों में भी अपने कार्यो को आगे बढाया।

गूगल ने डूडल बना कर याद किया चिपको आंदोलन को (Google Doodle )

गूगल ने 26 मार्च 2018 को चिपको आंदोलन की 45वीं सालगिरह के मौके पर डूडल बना कर इस आंदोलन को याद कर सम्मानित किया।  

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