Hiljatra: हिलजात्रा कृषि ,किसान व पशुओं पर आधारित पर्व

Hiljatra हिलजात्रा कृषि ,किसान व पशुओं पर आधारित पर्व

Hiljatra (हिलजात्रा)

उत्तराखंड में साल भर ऐसे पर्व मनाए जाते हैं जिनका सीधा संबंध ऋतु परिवर्तन से ,फसल बोने व काटने से तथा पशुओं से होता है। और हर त्यौहार उत्तराखंड की अनोखी संस्कृति ,पहाड़ी समाज की अपनी समृद्ध विरासत को जरूर झलकाता है।

हर त्यौहार यहां की माटी की खुशबू, यहां की सांस्कृतिक विरासत व हमारे पूर्वजों की अनोखी धरोहर को समेटे हुए होता है। उत्तराखंड के पहाड़ी भूभाग पर लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है।इसलिए किसान की अनमोल पूजीं उसकी भूमि, जंगल व पशु ही हैं ।

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इसलिए यह समाज इनको सम्मान देने के लिए समय-समय पर अनेक उत्सव मनाता रहता है। जिनके जरिए वह अपने इन अनमोल चीजों के प्रति अपने समर्पण व प्यार को जताता है साथ ही उनका धन्यवाद भी अर्पित करता है । किसान की इस अनमोल धरोहर  को दर्शाता है एक कृषकोत्सव ….हिलजात्रा (Hiljatra)

Hiljatra

यह पर्व (Hiljatra) उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जनपद की सोर घाटी में कुमौड़, बजेटी , थरकोट, बलकोट, पुरान, बराल गांव, चमाली, देवलथल, रसैपाटा आदि अनेक जगहों पर हिलजात्रा उत्सव का आयोजन आषाढ़ मास में सातों-आठों पर्व (गमला महोत्सव) में गमरा विसर्जन (सिलाने) के बाद किया जाता है।

Hiljatra एक नाट्य आधारित उत्सव है जो वर्षाकाल शुरू होने के वक्त किसानों द्वारा किया जाता है। इस कृषि पर आधारित उत्सव का हर पात्र कृषक वर्ग व उसके खेती संबंधी कार्यों पर ही आधारित है। जैसे बैलों की जोड़ी ,हलिया, धान के पौधे रोपण का कार्य, मेंड़ बांधने का कार्य ,हल चलाना/जोतना ,बैलों को हांकना ,व हिरन की उछल-कूद आदि।

Hiljatra (हिलजात्रा)

पिथौरागढ़ के कुमौड़ की प्रसिद्ध हिलजात्रा की शुरुआत उसके प्रारंभिक स्थल कोट तथा बजेटी की हिलजात्रा की शुरुआत बिरखमचौक से होकर मुख्य उत्सव स्थल तक  ढोल-नगाड़ों के साथ नाचते गाते व लोगों का मनोरंजन करते हुए होती है।

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सभी लोग तथा दर्शकगण उत्सव के प्रारंभिक स्थल से उत्सव के मुख्य स्थल तक पहुंचते हैं।  इस उत्सव का मुख्य आकर्षण बैलों की जोड़ी, हिरण ,गलियां बैल (आलसी) के लकड़ी से बने मुखोटे पहने हुए लोग होते हैं। जिन्होंने शरीर में केवल कच्छा (underwear) पहना होता है ।बाकी पूरा शरीर सफेद मिट्टी से पुता होता है। जिसमें काले, सफेद रंग की धारियां या बूटी बनी रहती हैं।

और कुछ युवक अलग-अलग भूमिकाओं में रहते हैं ।जैसे कोई हलिया बन इन बैलों की जोड़ी को हांकता है ,तो कोई ग्वाला बनकर गायों को चराता है ,कोई धान के पौधों के रोपण का कार्य करता है ।बैल बने इन पात्रों के गले में सचमुच की घंटी बंधी रहती है ।जिनको वह समय-समय पर बजाते रहते हैं।यह सब पात्र विभिन्न तरह का अभिनय कर लोगों का खूब मनोरंजन करते हैं।

उत्सव (Hiljatra) की शुरुआत दिन के दोपहर बाद गांव के मुखिया तथा गांव के कुछ गणमान्य व्यक्तियों द्वारा देवताओं के चिन्हों से अंकित लाल झंडों व स्थानीय वाद्ययंत्रों, ढोल-नगाड़ों के साथ उत्सव के प्रारंभिक स्थल कोट से उत्सव स्थल तक पहुंचने से होती है।

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इसके बाद शुरू होता है विभिन्न पात्रों द्वारा अभिनय….खेतों में धान की रोपाई का पूरा दृश्य दिखाने का तथा साथ ही साथ दर्शकों का मनोरंजन करने का पूर्ण प्रयास किया जाता है। एक महिला जिसे स्थानीय भाषा में पुतरिया (रुपाई में प्रयुक्त होने वाले छोटे-छोटे धान के पौधों को बांटने वाली महिला) कहा  जाता है।

वह पुतेर (धान के पौधे) को रोपाई करने वाली महिलाओं को बांटते रहने का अभिनय करती है। तो कुछ महिलाएं हल जोतने वाले व्यक्ति के पीछे-पीछे मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले तोड़ने का काम करती हैं ।इसी के साथ बीच-बीच में अपने बच्चों की देखभाल का भी अभिनय करती हैं। हलिया कभी बैलों से हल जोतता है तो कभी हुक्का पीता है ।

बीच-बीच में अन्य पात्र जैसे हिरण, चित्रल ,बैल, धोबी, ग्वाले, नाई आदि अन्य पात्र अपनी उछल-कूद व उटपटांग हरकतों से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करते हैं।

साथ ही साथ एक महिला सुबह का नाश्ता खेत में काम करने वाले लोगों के लिए लाती है और उनको देती हैं ।और सब लोग उसको बड़े चाव से खाते हुए नजर आते हैं। यह दृश्य इतना जीवंत होता है कि उस समय ऐसा लगता है मानो हम सचमुच किसी खेत में धान की रोपाई करते हुए लोगों को देख रहे हैं।

काफी समय तक यह चलता रहता है। दर्शकगण उस का भरपूर आनंद उठाते हैं।उसके बाद ढोल नगाड़ों की ध्वनि सुनाई देती है ।और उसके बाद प्रवेश होता है इस उत्सव के असली पात्र लखिया भूत का।

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लखिया भूत/देव के मैदान में प्रवेश करते ही सारे पात्र मैदान से बाहर हो जाते हैं। सिर्फ रोपाई करने वाली महिलाएं ही मैदान में रहती हैं। लखिया भूत को भगवान शंकर के रौद्र रूप का प्रतीक माना जाता है और लखिया देव/भूत भगवान शंकर के गण तथा भूत-प्रेतों के नायक माने जाते हैं ।

पूरे तन पर काले वस्त्र ,काले काले लंबे बाल और दोनों हाथों में काले चंवर तथा गले में बड़े-बड़े दानों की रुद्राक्ष की माला धारण किए लखिया देव का रूप बहुत ही भयानक होता है। उनकी कमर दो रस्सीयों से बंधी रहती हैं। जिनको पीछे से दो वीर मजबूती से थामे में रहते हैं। उत्सव मैदान में प्रवेश करने के बाद लखिया देव रोपाई करने वाली महिलाओं के कार्यों को अस्त-व्यस्त करने का प्रयत्न करने लगते हैं।

इस पर महिलाएं उन पर अक्षत व पुष्प की वर्षा कर उनको शांत करने का प्रयास करती हैं और इस उत्सव में शामिल लोग भी भगवान शंकर के इस गण को बड़ी श्रद्धा भाव से देखते हैं और उनके सामने नतमस्तक होकर उनको फूल ,अक्षत आदि चढ़ाते हैं। और साथ ही साथ अपने सुख ,शांति और समृद्धि की कामना करते हैं ।

लखिया देव उत्सव मैदान के चक्कर लगाते हैं तथा अंत में शांत होकर सभी लोगों को आशीर्वाद देकर वापस चले जाते हैं इसी के साथ ही उत्सव की समाप्ति हो जाती है। यह उत्सव वाकई में बहुत ही शानदार ,अपने आप में बेहद अनोखा होता है ।शायद ही इस तरह का उत्सव और कहीं मनाया जाता हो।

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वर्षा काल में धान की रोपाई के समय मनाए जाने के कारण यह उत्सव (Hiljatra) किसान और उसके द्वारा धान रोपाई के वक्त के कार्यकलापों पर आधारित है। इसलिए इसमें कलाकारों की वेशभूषा तथा उनके द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले उपकरण कृषि कार्यों से ही संबंधित ही होते हैं। यहां तक कि उनकी बोली और भाषा भी कृषि कार्यों से संबंधित ही होती है।

प्रतिवर्ष मनाया जाने वाले इस पर्व (Hiljatra) में शामिल होने तथा उसको करीब से देखने का एक अपना ही अलग अनुभव है। यह पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखने का कार्य करता है ।ऐसे ही पर्व हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत, हमारे पूर्वजों के धरोहर को सहेजने व संभालने का काम करते हैं और नई पीढ़ी को भी हमारी इस पर अनोखी समृद्ध धरोहर की जानकारी देते रहते हैं।

जय भोलेनाथ …….जय लखिया देव……।

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