Kumaoni Doli , कुमाऊँनी डोली ,कुमाऊं की एक विशिष्ट पहचान in Hindi
कुमाऊँनी डोली
“मेहंदी लगा के रखना ।डोली सजा के रखना “।यह एक प्रसिद्ध हिंदी फिल्म का मशहूर गाना है।जिसको आप में से हर किसी ने कई बार सुना होगा और जिसको सुनने का आपको बार-बार मन करता है। इस गाने में नायक डोली सजा कर रखने की बात कर रहा है ।आज हम भी इसी डोली की बात करेंगे मगर कुमाऊँनी डोली की।
मैं कुमाऊँनी डोली ( Kumaoni Doli) शब्द का प्रयोग इसलिए कर रही हूं ।क्योंकि कई अन्य जगहों में भी डोली या पालकी का इस्तेमाल शादी में किया जाता है। लेकिन कुमाऊँनी डोली एक अलग ही डिजाइन की बनी होती है ।जो लगभग सीढीनुमा होती है। यह डोली अपने कुमाऊ की एक विशिष्ट पहचान हैं ।
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आज से कुछ साल पहले तक जब भी किसी कुमाऊँनी परिवार में शादी होती थी। डोली की सबसे पहले व्यवस्था की जाती थी।और डोली का प्रयोग भी अवश्य होता था। दूल्हा दुल्हन को लेने के लिए डोली में ही बैठकर घर से निकलता था।
शादी , हर व्यक्ति के जीवन का एक खास मौका होता है।शादी के दिन वैसे भी दूल्हे को भगवान विष्णु और दुल्हन को माता लक्ष्मी का रूप माना जाता है।इसीलिए परिजनों के द्वारा उन्हें डोली में बिठाकर एक खास एहसास दिला कर राजसी ठाठ-बाठ के साथ दुल्हन के घर तक ले जाया जाता था। दूल्हे के कुछ अपने ही परिजन दूल्हे की डोली को कंधे में रखकर खुशी-खुशी ढोते हैं।
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कुमाऊँनी डोली पूजन
जब भी दूल्हा दुल्हन को लेने घर से निकलता है। तो उसको घर के आंगन में डोली में बिठाकर घर की खास महिलाएं जैसे मां ,बहन ,भाभी , अन्य खास परिजन चावल व पानी से उस डोली का पूजन करती हैं। और दूल्हे सहित डोली की पूजा चावलों से करके उन चावलों को चारों दिशाओं में बिखेर दिया जाता है ।और अपने इष्ट से अपने कार्य को निर्विघ्नं पूरा करने की प्रार्थना की जाती है ।इसको डोली पूजन कहते हैं ।
इसके बाद ही दूल्हा अपने घर के आंगन से बाहर कदम रखता है।जब दूल्हा दुल्हन के घर पहुंचता है।तो सबसे पहले यही रस्म वहां भी दुल्हन के परिवार की महिलाओं द्वारा निभाई जाती है।शादी हो जाने के बाद बारात विदाई के वक्त भी दूल्हा और दुल्हन दोनों को डोली में बिठाकर दोनों की डोलियों का फिर से चावल व पानी से पूजन किया जाता है। और चावलों को फिर से चारों दिशाओं में बिखेर दिया जाता है।
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दुल्हन को घर लाने के बाद दूल्हे के घर के आंगन में भी दोबारा यही रस्म दोहराई जाती है।यानी हमारे कुमाऊनी समाज में डोली पूजन शादियों में एक अहम रस्म है। जो सदियों से चली आ रही है।
हमारे पूर्वजों की यह धरोहर हमें विरासत के रूप में मिली है। और यह हमारी पहचान से भी जुड़ा हुआ है।शादी के मौके पर इस डोली को बड़े जतन से सजाया और संवारा जाता है । विभिन्न प्रकार की चीजों का प्रयोग करके इसे एक सुंदर रूप दिया जाता है ।
लेकिन बदलते वक्त ने इसकी अहमियत को कम कर दिया है।जहां पहले कुमाऊं के हर शादी में दूल्हा और दुल्हन को डोली में ही बिठाकर बड़े शान से लाया व ले जाया जाता था। आज के बदलते परिवेश में दूल्हा- दुल्हन डोली के बजाय चमचमाती आलीशान कारों में घर पहुंचते हैं। उसके बाद डोली पूजन की रस्म को डोली के बजाय कुर्सी में बिठाकर पूरी की जाती है ।हालांकि पूजन की रस्म आज भी पहले जैसी ही होती है ।लेकिन डोली की जगह कुर्सी ने ले ली है ।
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खत्म होती परंपरा
यह एक अनोखी रस्म है जो शायद ही अपने देश के किसी और हिस्से में या दुनिया में कहीं और होती हो ।लेकिन धीरे-धीरे डोली में बिठाकर पूजन की यह रीत खत्म होती जा रही है। शहरों में तो यह ना के बराबर ही है।हां कई ग्रामीण इलाकों में आज भी इन रस्मौं को ग्रामीण लोग बड़ी शिद्दत से निभाते हुए नजर आते हैं।
शादी अपने आप में ही एक अनोखा एहसास है।और डोली इस एहसास को दुगना कर देती है।क्या शान से दूल्हा डोली में बैठकर जाता है।और दुल्हन को डोली में बैठा कर ले आता है।सारे लोग पैदल चलते हैं ।लेकिन दूल्हा अपने राजसी ठाठ-बाट के साथ भले एक दिन के लिए ही सही।लेकिन वह राजाओं जैसा एहसास महसूस करता है।
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आज के दौर में डोली मरीजों को लाने व ले जाने के प्रयोग में ज्यादा काम आती है ।बजाय शादी में दूल्हा दुल्हन को ले जाने के।ग्रामीण इलाके जो शहर मार्ग से बहुत दूर हैं ।या ऐसे गांव जो सड़क मार्ग से नहीं जुड़े हैं।वहां पर अगर कोई व्यक्ति बीमार हो जाता है तो उसको गांव के लोग डोली में बिठाकर ही मुख्य मार्ग तक पहुंचाते हैं ।
काश इतिहास के पन्नों में सिमटती हमारे पूर्वजों की इस अनमोल धरोहर को हम बचा पाते और फिर से इसे प्रचलन में ला पाते तो हमारी आगे आने वाली पीढ़ी भी इस डोली और इससे जुड़ी रस्मों को देख पाती। और अपनी इस विरासत को समझ पाती।
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