Kabir Ki Saakhiyaan Class 8 Explanation :
Kabir Ki Saakhiyaan Class 8 Summary
कबीर की साखियाँ का सारांश
Note –
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कबीरदास जी की साखियाँ दोहा छंद में लिखी गई हैं। कबीर दास जी ने लगभग अपनी सभी रचनाओं में सांसारिक माया मोह , बाह्य आडंबरों , अंधविश्वास व जाति -पाँती के भेदभाव से इंसान को दूर रहने का संदेश दिया है।
“कबीर की साखियां” के पहले दोहे में कबीरदास जी सीधे-सीधे कहते हैं कि इंसान को उसके जाति , धर्म , बाह्य रंगरूप व वेशभूषा के आधार पर नहीं बल्कि उसके ज्ञान व सद्गुणों से ही पहचाना जाना आवश्यक है।
दूसरे दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य और संयम से काम लीजिए। अगर आपको कोई अपशब्द भी कहता है या कोई अप्रिय बात भी कहता है तो आप पलटकर उसका जवाब कभी मत दीजिए क्योंकि एक अपशब्द ही अनेक अपशब्दों का सिलसिला बनाता हैं।
तीसरे दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि अगर भगवान की सच्ची भक्ति करनी है तो सांसारिक माया मोह के साथ-साथ अपने मन की चंचलता का भी त्याग करना आवश्यक है। तभी भगवान की प्राप्ति हो सकती है।
चौथे दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि संसार में हर प्राणी का अपना अलग महत्व है चाहे वह छोटा हो या बड़ा। इसीलिए हमें सब के मान सम्मान को बनाए रखना चाहिए। कभी भी किसी का अपमान या अवहेलना नहीं करनी चाहिए।
और अंत में कबीरदास जी कहते हैं कि अगर आपका मन शांत है। आपके मन में कोई अहंकार की भावना नहीं है तो इस संसार में आपका कोई दुश्मन नहीं हो सकता। सब आपसे दया व प्रेम की भावना ही रखेंगे।
कबीर की साखियाँ का भावार्थ
साखी 1.
जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान।
मेल करो तरवार का , पड़ा रहन दो म्यान।
भावार्थ
कबीरदास जी कहते हैं कि जिस तरह तलवार की असली पहचान उसकी म्यान (तलवार रखने का कवर) को देखकर नहीं बल्कि तलवार की तेज धार को देखकर की जाती है। उसी प्रकार साधु की असली पहचान उसकी जाति से नहीं बल्कि उसके ज्ञान से होती है।
यानि तलवार को कितने ही सुंदर म्यान में क्यों न रखा जाय। अगर उसकी धार तेज नहीं होगी तो वह तलवार किसी काम की नहीं हैं। इसी तरह सिर्फ उच्च कुल में जन्म लेने व बाहर से साधु का चोला पहन लेने से कोई व्यक्ति ज्ञानी व साधु नहीं हो जाता है।
गरीब या निम्न कुल में जन्मा व्यक्ति भी ज्ञानवान , विद्वान और सद्गुणों को धारण कर सकता हैं और साधु हो सकता है। इसीलिए व्यक्ति की पहचान सदा उसके ज्ञान से ही की जानी चाहिए।
साखी 2.
आवत गारी एक है , उलटत होइ अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिए , वही एक की एक।
भावार्थ
साखी 3.
माला तो कर में फिरै , जीभि फिरै मुख माँहि।
मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै , यह तौ सुमिरन नाहिं।
भावार्थ
इन पंक्तियों में कबीरदास जी ढोंगी और पाखंडी लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि इस दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जो माला हाथ में लेकर उनके मोती फेरते (माला जपते रहते हैं ) रहते हैं और मुख से हमेशा भगवान का नाम लेते रहते हैं।
लेकिन असल में उनका मन दसों दिशाओं में (सांसारिक चीजों के पीछे) भटकता रहता है। यानि सांसारिक माया मोह के बंधन में लगा रहता है। इसे तो भगवान की सच्ची भक्ति नहीं कह सकते है।
यानि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान की सच्ची भक्ति न तो माला फेरने में हैं और न साधु-संतों जैसा दिखने में। बल्कि सारे सांसारिक बंधनों को छोड़कर एकांत में रहकर शांत व निर्मल मन से अपने आप को सिर्फ भगवान के चरणों में समर्पित कर देना ही सच्ची भक्ति है। सच्ची भक्ति के लिए किसी सांसारिक आडंबर की जरूरत नहीं हैं।
साखी 4.
कबीर घास न नींदिए , जो पाऊँ तलि होइ ।
उड़ि पड़ै जब आँखि मैं , खरी दुहेली होइ ।
भावार्थ
उपरोक्त साखी में कबीरदास जी कहते हैं कि कभी भी अपने पैर के नीचे आने वाले छोटे-छोटे घास के तिनकों तथा धूल के कणों को कम आंकने की गलती मत करना। क्योंकि कभी यही धूल के कण और घास का तिनका हवा के साथ उड़ कर आपकी आंख में चला जाएगा , तो वह आपको बहुत अधिक कष्ट देगा।
यानि संसार की हर छोटी से छोटी चीज का भी अपना एक अलग महत्व है। इसीलिए हमें उनके महत्व को कम आंकने के बजाय उनका सम्मान करना चाहिए।
साखी 5.
जग में बैरी कोइ नहीं , जो मन सीतल होय।
या आपा को डारि दे , दया करै सब कोय।
भावार्थ
उपरोक्त साखी में कबीरदास जी कहते हैं कि अगर आपका मन शांत है तो दुनिया में आपका कोई भी दुश्मन नहीं हो सकता और मन को शांत करने के लिए आप अपने अहंकार को त्याग दीजिए। जब आप अपने अहंकार को त्याग देंगे तो सब आप से दया व प्रेम का भाव रखेंगे।
यानी जब आप अपने अहंकार को त्याग देंगे और अपने मन को शांत रखेंगे , तो आपका इस दुनिया में कोई भी दुश्मन नहीं हो सकता हैं और जब कोई दुश्मन नहीं होगा तो सब आपसे दया और प्रेम का भावना अपने आप ही रखेंगे।
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