Kya Nirash Hua Jaye Class 8 Summary : क्या निराश हुआ जाए

Kya Nirash Hua Jaye Class 8 Summary :

Kya Nirash Hua Jaye Class 8 Summary 

क्या निराश हुआ जाए का सारांश 

“क्या निराश हुआ जाए” पाठ के लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। “क्या निराश हुआ जाए” हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित एक निबंध है। लेखक आये दिन समाचार पत्रों में छपने वाली डकैती , चोरी , तस्करी और भ्रष्टाचार की घटनाओं से दुखी है। इसीलिए वो कहते हैं कि आये दिन जिस तरह से लोग एक दूसरे पर बेईमानी का आरोप लगाते हैं। उन्हें देखकर तो ऐसा लगता है कि दुनिया में कोई ईमानदार आदमी रहा ही नहीं।

लोग एक दूसरे पर संदेह करने लगे हैं। खासकर ऊंचे पदों पर बैठे जिम्मेदार लोगों पर ज्यादा संदेह किया जाता हैं। लेखक कहते हैं कि इस वक्त तो सबसे सुखी इंसान वही है जो कोई काम धंधा नहीं करता क्योंकि अगर कोई व्यक्ति अच्छा काम भी करता है तो लोग उसके गुणों व अच्छाईयों का बखान करने के बजाय पहले उसके अंदर के अवगुणों या बुराइयों का बखान जोर शोर से करने लगते हैं। लेखक के अनुसार गुण और दोष हर आदमी के अंदर विद्यमान होते हैं लेकिन लोग गुणों को देखने के बजाय दोषों को अधिक देखते हैं। 

लेखक यहाँ पर कहते हैं कि अगर यही असली भारत हैं तो , यह चिंता का विषय हैं क्योंकि महात्मा गांधी और तिलक ने आजादी की लड़ाई लड़ने वक्त ऐसे भारत का सपना तो नहीं देखा था।  फिर वो प्रश्न पूछते हैं कि रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का “महान संस्कृति वाला सभ्य व सुसंस्कृत भारतवर्ष कहाँ खो गया”।  लेखक कहते हैं कि जैसे सारी नदियों अंतत: आकर समुद्र में मिलती हैं। उसी प्रकार यह भारत भूमि आर्य , द्रविड़ , हिंदू  , मुसलमान , यूरोपीय और भारतीय आदर्शों व सभ्यता संस्कृति की मिलन-भूमि यानि संगम स्थल है।

अर्थात इस देश की संस्कृति कई धर्म व जातियों की संस्कृति के मिलन से समृद्ध हुई हैं। इसीलिए कुछ लोगों के गलत होने से हमारे ऋषि-मुनियों का समृद्धि व सुसंस्कृत पावन भारत खत्म नहीं हो सकता हैं। वह हमेशा सुंदर ही बना रहेगा। 

हाँ , अभी हमें ऐसा लग रहा है कि जो झूठ फरेब कर रहे हैं। वो बहुत तरक्की कर रहे हैं और जो ईमानदारी से रहते हैं। उनका जीना समाज में कठिन हो गया है। आज लोग ईमानदार व्यक्ति को मूर्ख समझते हैं। यह सब देख कर आदर्श जीवन के महान मूल्यों जैसे सच्चाई , ईमानदारी पर से विश्वास टूटता हुआ महसूस हो रहा है। लेखक कहते हैं कि भारतवर्ष ने हमेशा भौतिक सुख-सुविधाओं की जगह व्यक्ति के गुणों को महत्व दिया है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि हर व्यक्ति के अंदर लोभ मोह , काम , क्रोध की भावना छुपी होती हैं लेकिन इनको अपने ऊपर हावी होने देना , बहुत बुरी बात है।

भारतवर्ष में हमेशा अपने लोभ , मोह , काम , क्रोध जैसे दुर्गुणों पर संयम रखना सिखाया जाता है। मगर जिस तरह भूखे व्यक्ति के लिए रोटी आवश्यक है और बीमार व्यक्ति के लिए दवा आवश्यक है। उसी तरह जो व्यक्ति सच्चाई व अच्छाई का मार्ग भूल चुके हैं। उनको सही रास्ते में लाना अति आवश्यक है। 

लेखक कहते हैं कि भारत में कृषि , उद्योग , वाणिज्य , शिक्षा और स्वास्थ्य आदि से संबंधित अनेक कानून देशहित और लोकहित में बनाये गये हैं। लेकिन इनका क्रियान्वयन करने वाले लोगों के मन में ईमानदारी व सच्चाई का भाव नहीं रहता है। वो अपने लिए सुख सुविधाओं को जोड़ने में ज्यादा ध्यान देते हैं।

यूं तो भारतवर्ष में कानून को ही धर्म माना जाता है। लेकिन आज धर्म और कानून दोनों अलग अलग कर दिए गए हैं। क्योंकि धर्म में धोखा नहीं दिया जा सकता लेकिन कानून में कमी पेशी निकाल कर उसका फायदा उठाया जा सकता है। समाज में चाहे कितना भी भ्रष्टाचार व बेईमानी फैल रही हो। और लोगों के मन से सच्चाई , ईमानदारी , प्रेम और दया का भाव कम जरूर हुआ हो लेकिन अभी भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ हैं।ये सब आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है।

लेखक मानते हैं कि भले ही लोग बुराई को बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं और अच्छाई को बताने में हिचक महसूस करते हैं। लेकिन आज भी हमारे समाज में ऐसे मौजूद हैं जो एक दूसरे के साथ दया , प्रेम की भावना रखते हैं और महिलाओं का सम्मान करते हैं। भ्रष्टाचार , बेईमानी का पर्दाफाश कर समाचार पत्र भी इन बुरी चीजों के प्रति अपनी नाराजगी ही व्यक्त करते हैं।

हमारे समाज में आज भी ईमानदारी और सच्चाई मौजूद है इसके लिए लेखक दो उदाहरणों देते हैं। अपने पहले उदाहरण में वो बताते हैं कि एक बार उन्होंने रेलवे टिकट लेने के लिए गलती से 10 की जगह 100 का नोट टिकट बाबू को दे दिया। गाड़ी चलने वाली थी। इसलिए वो जल्दी आ कर गाड़ी में बैठ गए लेकिन कुछ देर बाद टिकट बाबू उन्हें ढूंढते हुए आया और मांफी मांगते हुए उन्हें 90 रूपये वापस दे गया। तब उसके चेहरे पर आत्म संतोष साफ़ झलक रहा था।

दूसरे उदाहरण में वो कहते हैं कि एक बार वह अपनी पत्नी और 3 बच्चों के साथ यात्रा कर रहे थे। अचानक बस एक सुनसान जंगल में खराब हो गई और बस के रूकते ही बस का कंडक्टर एक साइकिल लेकर निकल पड़ा। तभी किसी व्यक्ति ने बताया कि इस रास्ते में दो दिन पहले ही एक बस को डकैतों ने लूटा। यह सुनकर बस में सवार सभी यात्री भयभीत हो गए।

और कंडक्टर का वहां से यूं चले जाना। उनके मन की शंका को और बढ़ा गया। सब लोगों के मन में यह था कि कहीं डकैत आकर उनके साथ मारपीट करके उन्हें लूट न लें। गुस्से में बस यात्रियों ने बस के ड्राइवर के साथ अभद्र व्यवहार करना शुरू कर दिया। लेखक ने लोगों को समझाने बुझाने की कोशिश की लेकिन किसी पर कोई असर नहीं हुआ।

तभी अचानक बस का कंडक्टर एक नई बस लेकर आ पहुंचा। तब कंडक्टर ने यात्रियों को बताया कि पुरानी बस चलने लायक नहीं थी। इसीलिए वह नई बस लेने गया था और साथ में ही कंडक्टर लेखक के बच्चों के लिए दूध व पानी का इंतजाम भी करके लाया था।

इसके बाद यात्रियों ने बस ड्राइवर व कंडक्टर से अपने किये की माफी मांगी और सभी यात्रियों ने नए बस में बैठ कर अपना सफर सकुशल पूरा किया। लेखक कहते हैं कि दुनिया में आज भी ऐसे लोग हैं जो इमानदारी से अपना कार्य करते हैं। लेखक कहते हैं कि उन्होंने खुद भी धोखा खाया है। जीवन में खुद भी अनेक परेशानियों का सामना किया है। लेकिन फिर भी उनका मानना है कि दुनिया में आज भी ईमानदार , दूसरों की मदद करने वालों की संख्या कम नहीं है।

वो कहते हैं कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक प्रार्थना गीत में भगवान से प्रार्थना की थी कि “हे प्रभो  !! तुम मुझे इतनी शक्ति अवश्य देना कि , अगर इस संसार में मुझे केवल नुकसान ही उठाना पड़े , या धोखा ही खाना पड़े , तब भी मेरा विश्वास तुझ पर बना रहे।

अंत में लेखक आशावादी हैं। वो कहते हैं कि मुझे तब तक निराश होने की जरूरत नहीं है जब तक भारत में ऐसे लोग मौजूद हैं जो दूसरों के प्रति दया , प्यार , ईमानदारी , सहिष्णुता का भाव रखते हैं और मेरे मन में अपने महान गौरवशाली भारत को पुनः पाने की आशा अभी भी जिंदा है। इसीलिए मेरे मन ! तुझे निराश होने की जरूरत नहीं है।

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