घुघुतिया त्यौहार क्यों मनाया जाता है कुमांऊ में ? जानिए महत्व

Why Ghughutiya Tyauhar is celebrated in Kumaon ? घुघुतिया त्यौहार मनाने की कहानी , घुघुतिया त्यौहार या उतरैणी त्यौहार या पुस्योडिया त्यौहार in hindi 

घुघुतिया त्यौहार

Ghughutiya Tyauhar

उत्तराखंड के घर -घर में मनाया जाने वाले सबसे ज्यादा प्रसिद्ध त्योहारों में से एक है घुघुतिया त्यौहार । यह त्यौहार लगभग पूरे कुमाऊं में बड़े जोश व उत्साह के साथ मनाया जाता है । घुघुतिया , पुस्योडिया , उतरैणी , चुन्यात्यार , खिचड़ी संक्रांति , मकरैणी , धोल्डा , धरनौला आदि अनेक नामों से प्रचलित इस त्यौहार को मकर सक्रांति के नाम से भी जाना जाता है।

क्योंकि इस दिन भगवान सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं और सौर मंडल में भी एक बडा़ बदलाव होता है जिसमें सूर्यदेव अपनी चाल बदल कर दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर चलने लगते हैं । इसलिए इस त्यौहार को उत्तरायणी का त्यौहार (उतरैणी) भी बोला जाता है। हर साल मकर संक्रांति 14 जनवरी को मनाई जाती है।

जानिए क्या है महत्व मकर संक्रांति का 

घुघुतिया त्यौहार क्यों मनाया जाता हैं कुमांऊ में
घुघुतिया त्यौहार में बनते हैं घुघुते

मकर संक्रांति को दान , स्नान , जप , तप , पितरों का श्राद्ध करना , उनको तर्पण देना , मंदिरों में पूजा अर्चना करना आदि को हमारे शास्त्रों में विशेष महत्व दिया गया है। कहा जाता है कि मकर संक्रांति के दिन दिया गया दान कई गुना फल लेकर वापस आता है। इसीलिए इस दिन लोग अधिक से अधिक दान – पुण्य व धार्मिक कार्य करते हैं।

पौष मास में पहाड़ों में अत्यधिक ठंड होती है लेकिन माघ का महीना लगते ही दिन बड़े और रातें छोटी हो जाती हैं और ठंड का प्रकोप भी इस दिन से धीरे-धीरे थोड़ा कम होने लगता है। चूंकि भारत उत्तरी गोलार्ध में स्थित है और मकर संक्रांति के पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में स्थित होते हैं जिस कारण अत्यधिक ठंड रहती है लेकिन मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उत्तरायण होकर (उत्तर दिशा की ओर गति) गति प्रारंभ करते हैं।

इसलिए जैसे – जैसे सूर्य उत्तरी गोलार्ध की तरफ चलते हैं , वैसे-वैसे धीरे-धीरे गर्मियों का मौसम आना प्रारंभ हो जाता है और धरती में थोड़ी गर्मी बढ़ने लगती है। इसीलिए इस त्यौहार का एक और नाम माघी त्यौहार भी है। पौराणिक महाकाव्य महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति के दिन (उत्तरायणी के दिन) अपनी देह का त्याग किया था।

कैसे मनाया जाता हैं घुघुतिया त्यौहार

कुमाँऊ में इस घुघुतिया त्यौहार को घुगुतिया या पुस्योडिया त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है।यह एक स्थानीय पर्व है जिसको कुमाऊँ में लोक उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है । यह त्यौहार कुमाऊं में दो दिन मनाया जाता है और इन दिनों का विभाजन अल्मोड़ा जनपद में बहने वाली पवित्र सरयू नदी से किया जाता है।

सरयू नदी के पूर्वी भाग में (उस पार) इसका आयोजन पौष मास (13 जनवरी) के अंतिम दिन किया जाता है यानी घुघूती (धुगुति) पौष मास के अंतिम दिन बनाए जाते हैं और माध माह के प्रथम दिन इनको कौवों को खिलाया जाता है । इसी कारण से इसे पुस्योडिया( पौष मास के अंतिम दिन) का त्यौहार कहा जाता है।

इसी तरह सरयू के इस पार के समस्त कुमाऊं में मकर संक्रांति के दिन यानि माघ माह के प्रथम दिन घुघूती बनाए जाते हैं और माघ महीने के दूसरे दिन इन्हें कौवों को दिया जाता है । इस त्यौहार को घुघुतिया त्यौहार भी कहा जाता है । त्यौहार भले अलग-अलग दिन मनाया जाता हो या फिर इस त्यौहार को कई अलग-अलग नामों से पुकारा जाता हो लेकिन त्यौहार में बनने वाले व्यंजन व त्यौहार का स्वरूप लगभग पूरे उत्तराखंड में एक समान ही रहता है।

घुघुतिया त्यौहार का मुख्य व्यंजन है घुगुते 

घुघुतिया त्यौहार के दिन बनने वाला एक व्यंजन जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है वह है घुगुती और इसी व्यंजन के नाम से इस त्यौहार का नाम घुगुती त्यौहार भी रखा गया है । यह व्यंजन आटा और सूजी को मिलाकर उसको गुड युक्त पानी तथा थोड़े से दूध के साथ गूदा जाता है फिर उसका आकार हिंदी के चार (४) अंक के जैसे बनाया जाता है।

उत्तराखंड में इस आकार के पकवान को घुगुत बोला जाता है। इसी के साथ उस आटे से कहीं सारे और भी आकार दिए जाते हैं जैसे ढाल , तलवार , डमरु , दाड़िम (अनार) के फूल आदि अनेक तरह की आकृतियां बनाई जाती है और साथ में कुछ खजूरे (आटे को बेल कर रोटी बनाई जाती है फिर उसको चाकू से छोटे-छोटे चौकोर टुकड़ों में काट दिया जाता है) भी काटे जाते हैं।

शाम होने पर इन सबको तेल में तल कर रख दिया जाता है। इन धुगुतों को फिर एक माला में पिरोया जाता है और उस माला के बीचो-बीच मध्य भाग में एक संतरा या नारंगी का फल लगा दिया जाता है । घुघुतिया त्यौहार के दिन घर में तरह – तरह के व्यंजन जैसे पूडी , बड़े , पुए , सिंगल , चावल से बनी से बनी खीर आदि भी बनायी जाती हैं।

कौवों को खिलाये जाते हैं घुघुते 

अगले दिन सुबह होने पर यानि माघ माह के प्रथम दिन बच्चे सुबह उठकर , नहा धोकर इन मालाओं को पहन लेते हैं और अपनी छत पर जाकर पूडी व कुछ धुगुतों को एक स्थान पर रखकर जोर-जोर से कौवों को बुलाना शुरू कर देते हैं। साथ ही एक बेहद कर्णप्रिय लोकगीत भी गाते हैं जिसमें वो कव्वों से अपनी मनोकामनाएं पूरी करने को कहते हैं ।

घुघुते की माला पहनते हैं बच्चे
घुघुते की माला

काले कौवा काले …..पूसै रोटी माघै खाले।

लै कौवा बडो़   ….   मैं कें दै सुनाको घडों।

लै कौवा ढाल ….   मैं कें दै सुनाक दाल।

लै कौवा पुरी  ….  मैं कें दै सुनाकि छुरी।

लै कौवा तलवार …. मैं कें दै ठुलों घरबार।

काले कौवा काले …..पूसै रोटी माघै खाले।…….

सुबह-सुबह पूरे इलाके में बच्चों की मधुर आवाजों से एक सुंदर शोरगुल पैदा हो जाता है जो सुनने में बेहद कर्णप्रिय लगता है। बच्चों के जोर-जोर से चिल्लाकर कौवों‌ को आमंत्रण देने से कौवों भी तुरंत आ जाते हैं और उनकी पूडी और घूंघतौं को ले जाकर दूर गगन में उड़ जाते हैं।

बच्चे इस कार्य को बहुत ही उत्साह व‌ खुशी से करते हैं और अपनी माला से धुगुते निकाल-निकाल कर कौवों‌ को खिलाते हैं और प्रसन्न होते हैं।जिसका धुगुता सबसे पहले कौव्वा लेकर उड़ जाता है उसे सबसे भाग्यशाली समझा जाता है। उसके बाद बच्चे अपनी-अपनी माला के धुगुते स्वयं ही खा लेते हैं।

यह बहुत ही सुंदर व शानदार त्यौहार है जो हमारे चारों ओर की प्रकृति व पर्यावरण से तथा जीव-जंतुओं से इंसान के घनिष्ठ संबंधों को दर्शाता है और यह त्यौहार तो खासकर कौवों तथा बच्चों को समर्पित है। शायद इस दुनिया का यह एकमात्र त्यौहार होगा जो कौवों को समर्पित है।

उत्तराखंड के एक पक्षी जिसका हिंदी में नाम “फाख्ता “ है , उसको कुमाऊनी भाषा “घूंगुता” बोला जाता है। हालांकि इस पक्षी का इस त्यौहार से कोई लेना-देना नहीं हैं।

गढ़वाल मंडल में भी घुघुतिया त्यौहार की रहती है बड़ी धूम

उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में भी घुघुतिया त्यौहार बहुत ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है ।घुघुतिया त्यौहार को वहां पर घोल्डिये त्यौहार के नाम से जाना जाता है । इस अवसर पर वहां भी गुड मिश्रित आटे से बनाए जाने वाले पकवानों को धुरड ( पहाड़ी हिरण या मृग) के आकार का बनाया जाता है। घूंघतों की भांति इनको भी घी या तेल में तल दिया जाता है। फिर बच्चों के हाथों में देकर इन घुरडों को मारने का अभिनय करते हुए छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर खाया जाता है।

गढ़वाल के कुछ इलाकों में इसे चुन्या त्यार भी कहा जाता है। इन इलाकों में इस दिन दाल , चावल , झंगोरा आदि सात अनाजों को पीसकर उससे एक विशेष प्रकार का व्यंजन बनाया जाता है जिसे चुन्या कहते हैं। मकर संक्रांति के दिन उड़द की खिचड़ी का दान करना व उड़द की खिचड़ी खाना सर्वोत्तम माना जाता है। इसीलिए इसे खिचड़ी त्यौहार भी कहा जाता है।

घुघुतिया त्यौहार एक , रंग अनेक 

कुमाऊ के धारचूला तथा उसके आसपास के इलाकों में घुघुतिया त्यौहार को मंडल त्यार के नाम से जाना जाता है ।इस दिन मंडल नामक स्थान पर काफी बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। इस दिन महिलाएं घरों की साफ सफाई करती है। गोबर व मिट्टी को मिलाकर उससे घर की पुताई की जाती है तथा गेहूं के हरे – भरे खेतों में जाकर गेहूं के पौधों के जड़ों को मिट्टी समेत उखाड़ कर घर लाया जाता है ।

और फिर उन पौधों को रोली , अक्षत व चंदन लगाकर मकान की खोली पर जगह-जगह चिपकाया जाता है। इस अवसर पर घर में अनेक तरह के पकवान बनाए जाते हैं तथा साथ ही साथ अनेक लोक गीत भी गाए जाते हैं व पारंपरिक नृत्य का आनंद भी लिया जाता है। बच्चे , बडे़ , बुजुर्ग सब इसमें बड़े उत्साह से अपना योगदान देते हैं।

घुघुते हैं घुघुतिया त्यौहार की पहचान
घुघुते हैं घुघुतिया त्यौहार की पहचान

घुघुतिया त्यौहार की कथा 

इस त्यौहार के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं उन्ही में से एक प्रचलित कथा यह है कि कुमाऊ के चंद्र शासक कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने एक बार मकर संक्रांति के पर्व पर बागेश्वर जाकर सरयू और गोमती के पवित्र संगम पर स्नान कर भगवान बागनाथ (बागनाथ यानी शिव का विशाल मंदिर बागेश्वर में सरयू गोमती संगम के किनारे पर स्थित है) की पूजा करते हुए उनसे पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की ।

भगवान भोलेनाथ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और अगले मकर संक्रांति में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गई।कल्याण चंद ने अपने पुत्र का नाम निर्भय चंद्र रखा लेकिन माता उसे प्यार से “घुगुती” पुकारती थी। राजकुमार निर्भय के गले में मोती की एक माला हमेशा रहा करती थी जिसमें धुगरू लगे थे जिसे देखकर वह बालक बहुत प्रसन्न होता था।

वह उस माला से बड़ा स्नेह रखता था। इसीलिए जब कभी वह रोने लगता या जिद करने लगता तो माता उसे चुप कराने के लिए कहती “अरे घुघुती चुप हो जा …नहीं तो तेरी यह प्यारी सी माला मैं कव्वे को दे दूंगी” और जोर -जोर से चिल्लाती  “ओ कव्वे आ जा… घुगुति की माला खा जा”। इस पर बालक डर से चुप हो जाता  और कभी-कभी कौवे सच में ही आ जाते थे। राजकुमार उनको देखकर खुश हो जाता और रानी उन कौवों को कुछ पकवान खाने को दे देती।

लेकिन राजा का एक दुष्ट मंत्री इस राज्य को हड़पने की बुरी नियत से इस प्यारे से राजकुमार को मार डालना चाहता था। इसी वजह से वह एक दिन राजकुमार को उठाकर जंगल की तरफ चल दिया। लेकिन इस घटना को उसके साथ खेलने वाले एक कव्वे ने देख लिया और वह कौवा जोर-जोर से कांव-कांव करके चिल्लाने लगा ।

उसकी आवाज सुनकर और भी कौवे वहां पर इकट्ठे हो गए और सभी जोर-जोर से चिल्लाने लगे।राजकुमार ने अपने गले की माला उतारकर अपने हाथ में रखी थी कि तभी एक कौवे ने झपटकर उसकी माला उसके हाथ से ले ली और सीधे राजमहल की तरफ उड़ गया। कौवे के मुंह में राजकुमार की माला देखकर और राजकुमार को वहां ना पाकर सभी लोग घबरा गए। कौवा माला को लेकर कभी इधर घूमता कभी उधर घूमता और कभी जोर-जोर से चिल्लाने लगता ।

तब राजा की समझ में आया कि राजकुमार किसी संकट में है और वह कौवे के पीछे पीछे जंगल की तरफ चले गए । जहां मंत्री डर के मारे राजकुमार को छोड़कर भाग चुका था। रानी अपने पुत्र को पाकर बहुत प्रसन्न हुई और वह कौवों का एहसान मानकर उन्हें हर मकर संक्रांति पर पकवान बना कर खिलाती थी।  राजकुमार के जन्मदिन के अवसर पर कौवों को बुलाकर पकवान खिलाने की यह परंपरा उन्होंने राज्य भर में आरंभ कर दी।

इस त्यौहार को मनाए जाने के पीछे एक और कारण यह है कि जनवरी के माह में (माघ माह ) पर्वतीय इलाकों में अत्यधिक ठंड और हिमपात की वजह से सारे पक्षी मैदानी इलाकों में चले जाते हैं लेकिन कौवा ही वह प्राणी है जो अपने आवास को छोड़कर कहीं नहीं जाता हैं। शायद इसी वजह से इनको आदर देने हेतु उन्हें यह पकवान बनाकर खिलाए जाते हैं।

विशेष

घुघुतिया त्यौहार शायद दुनिया का ऐसा पहला त्यौहार है जो इतने अलग-अलग नामों से जाना जाता है और विशेष तौर पर एक परिंदे (कव्वे) व बच्चों को समर्पित है। भले ही त्यौहार का आकर्षण कौवा है।

लेकिन इस त्यौहार के हर पहलू में उत्तराखंड की संस्कृति , यहां की विरासत और यहां की मिट्टी की खुशबू झलकती है। वाह अनोखी है यह उत्तराखंड की भूमि और यहां मनाए जाने वाले त्यौहार जिसमें ना सिर्फ इंसान बल्कि प्रकृति व हमारे चारों ओर के जीव जंतु को भी बराबर का सम्मान दिया जाता है ।

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