Chaudashi Ka Parv ,छिपलाकोट के ह्रदय में “चौदशी” का पर्व in hindi
चौदशी का पर्व
Chaudashi Ka Parv
प्राचीन काल से हमारी भारतीय संस्कृति में हिमालय का सर्वोच्च स्थान रहा है ।आज भी हिमालय अनेकों विशेषताओं को अपने में समेटे हुए निश्चल वं गंभीर तथा शांत रूप में विराजमान है। यह अनेक ऋषि-मुनियों की तपोभूमि और अनगिनत देवी , देवताओं का निवास स्थान माना जाता है। साथ ही साथ यहां अनेक दुर्लभ जड़ी बूटीयों भी आसानी से मिल जाती हैं।
पिथौरागढ़ जनपद के उत्तर पूर्व में धारचूला एवं मुनस्यारी दो विकासखंडों के मध्य का यह क्षेत्र जौलजीबी से मुनस्यारी जौहार मल्ला तक फैला है । गोरी नदी के किनारे होने के कारण गोरीछाल ( गौरी पाट) के नाम से जाना जाता है ।हिमालय की कंदराओं के समीप लगा पर्वत छिपलाकोट इसी गोरी छाल के शीर्ष में अवस्थित है।
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एक ओर जहां उत्तराखंड में अनेकों तीर्थ धाम अपनी पवित्रता को बरकरार रखे हैं ।वही छिपलाकोट तीर्थ धाम का भी अपना एक अलग ही महत्व है ।और किसी भी रुप में उसकी धार्मिक महत्वता को कम नहीं समझा जा सकता है।
छिपलाकोट केदार देवता की पावन स्थली मानी जाती है ।जो भी व्यक्ति छिपलाकोट धाम से परिचित होगा ।शायद ही अपने जीवन में इसे भूल सकेगा ।प्रत्येक तीसरे वर्ष श्रावण भाद्र के मास में छिपलाकोट में जांत यात्रा की जाती है ।जो “छिपला जांंत” के नाम से जानी जाती है।
माता मैणामाई और पिता कोडिया नाग से जन्म लेने वाले केदार देव दस भाई बहन थे। तीन भाइयों में केदार देव सबसे कनिष्ठ थे। उदैण व मुदैण भाई और होकरा देवी ,भराडी देवी ,कोडिगाड़ी देवी, चानुला देवी, नंदा देवी ,कालिका देवी, कोकिला देवी बहने थी। बहनों में कोकिला देवी सबसे कनिष्ठ थी।
जौलाजीवी से 30 किलोमीटर दूर और छिपलाकोट के ह्रदय में कनार गांव में विराजमान हैं छिपला केदार की बहन कोकिला देवी का मंदिर । प्रत्येक वर्ष दिसंबर माह में होने वाली पूर्णिमा के दिन कोकिला मां के मंदिर में श्रद्धालु एवं भक्तों का तांता लगा रहता है। हजारों लोग दूर-दूर से मां के दर्शन करने तथा आशीर्वाद प्राप्त करने यहां आते हैं।
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शक्ति की माता ,वरदायिनी माता की महिमा के गुणगान करते लोग थकते नहीं । कहते हैं जो लोग दूर-दूर से मां के दर्शन करने व आशीर्वाद लेने आते हैं ।वरदान मांगने आते हैं ।आशायों लेकर आते हैं ।निश्चय ही और तुरंत फल मिलता है ।मां के मंदिर में पूर्णिमा के दिन से एक दिन पहले ही श्रद्धालुओं का पहुंचना शुरू हो जाता है।
कोकिला देवी के मंदिर तक पहुंचने के लिए कुछ दूरी पैदल चलकर तय करनी पड़ती है ।इस बीच रास्ते भर लोगों की लंबी लंबी कतारें लगी रहती हैं ।हरे-भरे सुंदर वन ऊंचे- ऊंचे पर्वत शिखर, ऊंची -नीची घाटियां, कल कल करती हुई बहती नदीयों ,ऊपर से पशु पक्षियों का विभिन्न भाषा में कलरव यात्रियों का स्वागत करता है। यह सब मन को प्रफुल्लित कर देता हैं।
मां कोकिला का मंदिर 22 हाथ गर्भ का बना हुआ है क्योंकि कोकिला देवी जिसे मां दुर्गा (भगवती माता) के नाम से भी पुकारा जाता है। जिनकी सवारी सिंह( बाघ )है। और बाघ की एक छलांग 22 हाथ की मानी जाती है। अतः उसी अनुरूप में 22 हाथ गर्भ को रखकर मंदिर का निर्माण किया गया है ।
मंदिर के भीतरी भाग को जहां पर मां देवी की प्रतिमा स्थापित की गई है ।उसे भनार (भंडार) कहा जाता है ।वही देवी मां को फल, फूल, माला, वस्त्र आदि भेंट किए जाते हैं। लेकिन मंदिर के अंदर भनार में प्रवेश की अनुमति सिर्फ पुजारी को ही होती ह है।
पुजारी जी गांव के ही एक व्यक्ति होते है। आज भी पुजारी जी के अलावा मां कोकिला देवी के मंदिर के भीतर प्रवेश का अधिकार किसी को नहीं है। यहां तक कि एक पंडित जी भी मंदिर के भीतर भनार तक प्रवेश नहीं कर सकते हैं।
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प्रत्येक वर्ष दिसंबर माह में पढ़ने वाली पूर्णिमा के दिन मंदिर के समीपस्थ वसायतोंं (गांव) के लोग ढोल-नगाड़ों के साथ विभिन्न समूह में मंदिर तक जाते हैं। और देवी मां के प्रति पूर्ण आस्था के साथ न्यौछावर होकर नाचते गाते , मां का जयकारा करते हुए मंदिर की परिक्रमा करते हैं ।
तत्पश्चात रात्रि भर भजन कीर्तन व जागरण होता है। और जो विशेष चीज यहां देखने को मिलती है । वह है नर- नारियों के एक समूह में चांचरियों के बोल । यही चांचरियो के बोल माता कोकिला के गुणगान को पिरोए रहते हैं । इस प्रकार चांचरियों के स्वर में ही माता की स्तुति की जाती हैं।
नैनीताल की नंदा देवी छिपला केदार।
सब ही दयालु होया कोकिला कनार ।।
हमारी संस्कृति की अमूल्य और अमित झलक यहां देखने को मिलती है । शाम ढलते-ढलते मां देवी की पूजा अर्चना प्रारंभ हो जाती है । मां की महिमा, प्रसिद्धि व ख्याति को सुन कर दूर दराज से आए लोग मां से वर (वरदान) मांगने हेतु रात भर मंदिर में खड़े रहते हैं जिससे ” ठडदिया “ रहना कहते हैं ।और लगभग रात्रि के तीसरे पहर में मां देवी अवतार लेती हैं ।और लोगों को वरदान मिलना प्रारंभ हो जाता है ।
रात भर जागरण के फलस्वरुप प्रभात होते-होते श्रद्धालु अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगते हैं ।और समीपस्थ वसायतोंं या गांव के लोग जो ढोल-नगाड़ों के साथ विभिन्न समूह में अलग-अलग जांत के रूप में आए थे। प्रातः मां से विदा लेकर ढोल-नगाड़ों के साथ नाचते हुए मंदिर की परिक्रमा करते हुए अपने गांव की ओर वापस प्रस्थान करते हैं।
यह पर्व वर्षों पूर्व चतुर्दशी के दिन संपन्न होता था । इसी कारण इसे “चौदशी का पर्व/Chaudashi Ka Parv” कहा जाता था ।वर्तमान में यह पूर्णिमा के दिन संपन्न होता है । परंतु आज भी इसे “चौदशी का पर्व/Chaudashi Ka Parv” के नाम से ही जाना जाता है ।
आज फिर हिमालय की पर्वत मालाऔं से पुकार आ रही है। मां कोकिला का बुलावा आया है। क्यों न इस चौदशी पर्व (Chaudashi Ka Parv) को मां के दर्शन करे जाय।
त्रिलोक सिंह बिष्ट
प्रवक्ता (अंग्रेजी)
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