सातों व आठों पर्व (गमरा पर्व) in hindi
सातों व आठों का पर्व
भगवान व प्रकृति से इंसान का नाता उतना ही पुराना है जितना इंसान का इंसान से। पूरी दुनिया में भगवान व प्रकृति को विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। व समय-समय पर उनसे संबंधित अनेक पर्व व त्यौहार मनाए जाते हैं।
लेकिन उत्तराखंड की देवभूमि में एक ऐसा अनोखा पर्व (जिसे सातों व आठों का पर्व भी कहते हैं) मनाया जाता है। जिसमें इंसान भगवान को भी एक मानवीय रिश्ते (बड़ी दीदी और जीजाजी के रूप में)में बड़ी आस्था व विश्वास के साथ बांध देता है। यह पर्व लगभग पूरे उत्तराखंड में कई जगहों पर मनाया जाता है लेकिन सीमावर्ती इलाकों में खासकर पिथौरागढ़ जनपद में यह बड़े धूमधाम व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
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ऐसा माना जाता है कि भगवान भोलेनाथ का निवास स्थान व उनकी ससुराल इसी उत्तराखंड की देवभूमि में है ।इसीलिए यह देवभूमि भगवान भोलेनाथ को समर्पित है। इस पर्व के दौरान माता पार्वती को बड़ी दीदी व भगवान भोलेनाथ को जमाई राजा के रूप में सम्मान दिया जाता है। व उनकी पूजा आराधना की जाती है।
जैसे किसी परिवार की बेटी शादी के बाद जब अपने पति के साथ पहली बार मायके आती है।तो उस वक्त परिवार के लोगों के मन में जो उत्साह और उमंग रहता है ।और जमाई राजा को जो स्नेह और सम्मान दिया जाता है ।उसी प्रकार का आदर, सम्मान व स्नेह भोलेनाथ को भी दिया जाता है। और उनको अपने परिवार का एक सदस्य ही माना जाता है।
बिरूड
लोक पर्व की शुरुआत
प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले इस त्यौहार की शुरुआत भाद्रपद मास (अगस्त-सितंबर) की पंचमी तिथि से होती है। इसे बिरूड पंचमी भी कहते हैं ।इस दिन हर घर में तांबे के एक बर्तन में पांच अनाजों (मक्का ,गेहूं ,गहत ,ग्रूस (गुरुस) व कलू ) को भिगोकर मंदिर के समीप रखा जाता है। इन अनाजों को सामान्य भाषा में बिरूडे या बिरूडा भी बोला जाता है।क्योंकि ये अनाज औषधीय गुणों से भी भरपूर होते हैं। व स्वास्थ्य के लिए भी अति लाभप्रद होते हैं। इस मौसम में इन अनाजों को खाना अति उत्तम माना जाता है।इसीलिए इस मौके पर इन्हीं अनाजों को प्रसाद के रूप में बांटा एवं खाया जाता है।
दो दिन बाद सप्तमी के दिन शादीशुदा महिलाएं पूरे दिन व्रत रखती हैं । और दोपहर बाद अपना पूरा सोलह श्रृंगार कर धान के हरे भरे खेतों में निकल पड़ती हैं। धान के खेतों में एक विशेष प्रकार का पौधा ( जिसे सौं का पौधा कहते हैं ) भी उगता है। उस पौधे को महिलाएं उखाड़ लेती हैं। और साथ में कुछ धान के पौधे भी।
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इन्हीं पौधों से माता पार्वती की एक आकृति बनाई जाती है। फिर उस आकृति को एक डलिया में थोड़ी सी मिट्टी के बीच में स्थापित कर दिया जाता है। उसके बाद उनको नए वस्त्र व आभूषण पहनाए जाते हैं ।पौधों से बनी इसी आकृति को गमरा या माता गौरी का नाम दिया जाता है।
फिर माता गौरी का सोलर श्रृंगार किया जाता है। उसके बाद महिलाएं गमरा सहित डलिया को सिर पर रखकर लोकगीत गाते हुए गांव में वापस आती हैं।और माता गौरी को गांव के ही किसी एक व्यक्ति के घर पर पंडित जी द्वारा स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है।
फिर पंचमी के दिन भिगोए गए पांचों अनाजों के बर्तन को नौले (गांव में पानी भरने की एक सामूहिक जगह) में ले जाकर उन अनाजों को पानी से धोया जाता है। फिर इन्हीं बिरूडों से माता गौरी की पूजा अर्चना की जाती है। इस अवसर पर शादीशुदा सुहागिन महिलाएं गले व हाथ में पीला धागा (जिसे स्थानीय भाषा में डोर कहते हैं ) बांधती हैं ।यह अखंड सुख-सौभाग्य व संतान की लंबी आयु की मंगल कामना के लिए बांधा जाता है।
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ऐसा माना जाता है कि माता गौरी भगवान भोलेनाथ से रूठ कर अपने मायके चली आती हैं इसीलिए अगले दिन अष्टमी को भगवान भोलेनाथ माता पार्वती को मनाने उनके मायके चले आते हैं। इसीलिए अगले दिन महिलाएं फिर से सज धज कर धान के हरे भरे खेतों में पहुंचती हैं ।और वहां से सौं और धान के कुछ पौधे उखाड़ कर उनको एक पुरुष की आकृति में ढाल दिया जाता है ।उन्हें महेश्वर बोला जाता है।
फिर महेश्वर को भी एक डलिया में रखकर उनको भी नए वस्त्र आभूषण पहनाए जाते हैं। और उस डलिया को भी सिर पर रखकर नाचते गाते हुए गांव की तरफ लाते हैं और फिर उनको माता पार्वती के समीप ही पंडित जी के मंत्रोपचार के बाद स्थापित कर दिया जाता है। माता पार्वती व भगवान भोलेनाथ को गमरा दीदी व महेश्वर भीना (जीजाजी) के रूप में पूजा जाता है ।साथ ही उनको फल व पकवान भी अर्पित किए जाते हैं।
इस अवसर पर घर की बुजुर्ग महिलाएं घर के सभी सदस्यों के सिर पर इन विरूडों को रखकर उनको ढेर सारा आशीर्वाद देती हैं तथा उनकी लंबी आयु व सफल जीवन की मनोकामना करती हुई उनको दुआएं देती हैं।
फिर अगले तीन-चार दिन तक गांव में प्रत्येक शाम को खेल लगाए जाते हैं।जिसमें अनेक तरह के लोकगीत जैसे झोड़े , झुमटा, चांचरी, छपेली आदि गाए जाते हैं। तथा महिलाएं और पुरुष गोल घेरे में एक दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते-गाते हुए इस त्यौहार का आनंद उठाते हैं। और अपने जीवन के लिए व पूरे गांव की सुख समृद्धि व खुशहाली की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ से प्रार्थना करते हैं कि वह सदैव उनकी रक्षा करें वह उनकी मनोकामनाओं को पूर्ण करें।
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विसर्जन
इसी तरह अगले चार-पांच दिन यूं ही गौरी और महेश्वर की पूजा-अर्चना में व नाचते गाते व हर्षोल्लास के साथ व्यतीत हो जाते हैं । उसके बाद गौरी और महेश्वर को एक स्थानीय मंदिर में बड़े धूमधाम से लोकगीत गाते व ढोल नगाड़े बजाते हुए ले जाया जाता है ।जहां पर उनकी पूजा अर्चना के बाद विसर्जित कर दिया जाता है जिस को आम भाषा में सेला या सिला देना भी कहते हैं ।
यह एक तरीके से बेटी की विदाई का जैसा ही समारोह होता है। जिसमें माता गौरी को मायके से अपने पति के साथ ससुराल को विदा किया जाता है ।इस अवसर पर गांव वालों भरे मन व नम आंखों से अपनी बेटी गमरा को जमाई राजा महेश्वर के साथ ससुराल की तरफ विदा कर देते हैं। तथा साथ ही साथ अगले वर्ष फिर से गौरा के अपने मायके आने का इंतजार करते हैं।
फौल फटकना
इस अवसर पर एक अनोखी रस्म भी निभाई जाती है।जिसमें एक बड़े से कपड़े के बीचो-बीच कुछ बिरूडे व फल रखे जाते हैं। फिर दो लोग दोनों तरफ से उस कपड़े के कोनों को पकड़कर उस में रखी चीजों को ऊपर की तरफ उछालते हैं। कुंवारी लड़कियां व शादीशुदा महिलाएं अपना आंचल फैलाकर इनको इकट्ठा कर लेती हैं। यह बहुत ही शुभ व मंगलकारी माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि अगर कोई कुंवारी लड़की इनको इकट्ठा कर लेती हैं तो उस लड़की की शादी अगले पर्व से पहले-पहले हो जाती है।
सातों व आठों पर्व एक ऐसा लोक पर्व है जो उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाता है।तथा साथ ही साथ भगवान से इंसान के गहरे रिश्ते के बारे में बताता है ।यह पर्व बहुत ही अनोखा व अद्भुत है ।और बड़े शानदार ढंग से मनाया जाता है। बच्चे ,बुजुर्ग ,महिलाएं व पुरुष इस पर्व को बहुत ही उत्साह, उमंग के साथ मनाते हैं ।
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परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए नए कपड़े लिए जाते हैं तथा इन्हीं कपड़ों को पहनकर इस पर्व का आनंद उठाया जाता है। तरह- तरह के कुमाउनी व्यंजन विशेष रुप से पहाड़ के अनाज से बनने वाले व्यंजनों को बनाया जाता है। साथ ही साथ बिरूडों को भी माता गौरी का आशीर्वाद समझ कर पकाकर खाया जाता है व प्रसाद के रूप में भी बांटा जाता है।इस पर्व के समापन के बाद कई जगहों पर हिलजात्रा का भी आयोजन किया जाता है।
धन्य है यह उत्तराखंड की देवभूमि और यहां के लोक पर्व…..
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