Motivational Story For Kids : बच्चों के लिए कहानियों

Motivational Story For Kids : बच्चों के लिए कहानियों

Motivational Story For Kids 

बच्चों के लिए कहानियों

कहानी – 1 

ईमानदारी का ईनाम

शाम का समय था । दिल्ली की सड़कों में रोज की तरह से खूब भीड़ भाड़ थी। इतने में एक सेठ अपनी दुकान से निकलकर घर की तरफ जा रहे थे की । वह थोडा जल्दी में थे ।इसीलिए वह तेजी से अपनी दुकान से निकलकर गाड़ी में बैठ गए ।इस हड़बड़ी के चक्कर में उनका पर्स उनकी जेब से सड़क पर गिर गया ।लेकिन उन्हें इस बात का पता नहीं चला।

 उसी समय सुमन नाम का एक गरीब विद्यार्थी स्कूल से घर लौटा था। उसने पर्स देखा और उसे उठा लिया ।घर पहुंच कर उसने पर्स खोला तो देखा कि पर्स ढेर सारे रुपयों व जरूरी कागजातों से भरा पड़ा था।

एक बार तो बालक के मन में लालच आ गया ।उसने मन ही मन सोचा कि वह इतने सारे पैसों से अपने लिए कई सारी चीजें खरीद सकता है। लेकिन अगले ही पल उसका दिमाग बदल गया ।

उसने सोचा ये कागजात मेरे लिए भले ही कोई अहमियत ना रखते हों ।लेकिन हो सकता है किसी अन्य के लिए ये बहुत जरूरी हों ।और उसने वह पर्स वापस लौटाने का फैसला कर लिया।

वह दूसरे दिन सीधे शहर के कोतवाल के पास पहुंचा और उन्हें सारी कहानी बता कर वह पर्स उन्हें दे आया। कोतवाल ने बालक के जाने के बाद पर्स संबंधी एक विज्ञापन शहर के एक नामी अखबार में निकलवा दिया।अगले दिन सुबह अखबार पढ़ते हुए सेठ जी की नजर उस विज्ञापन पर पडी और वह अपना पर्स लेने शहर के कोतवाल के पास पहुंच गए.

कोतवाल ने पूरी छानबीन के बाद पर्स सेठ जी को वापस कर दिया। सेठ जी अपना पर्स और जरूरी कागजातों को पाकर बहुत खुश हुए। उन्होंने उस बालक से मिलने की इच्छा जगाई। शहर के कोतवाल ने उन्हें बालक का पता बता दिया। सेठ जी सीधे बालक के घर पहुंचे ।उन्होंने बालक से  खुश होकर बालक के आगे की पढ़ाई का पूरा खर्चा उठाने की बात उसके माता-पिता से की।

उसके माता-पिता गरीब थे।इसलिए उन्होंने उनकी बात खुशी-खुशी मान ली। समय धीरे धीरे पंख लगा कर उड़ गया। वह बालक अब अपनी उच्च शिक्षा पूरी कर वापस अपने घर लौट आया। तो सेठ जी ने उसे अपने पास बुलाया और उसे अपने यहां मैनेजर के पद पर नियुक्त कर दिया।

इसके बाद उस बालक ने मन लगाकर बड़ी मेहनत से काम किया। जिससे सेठजी का काम दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा जिसका फायदा उसे भी पहुंचा।

Moral Of The Story

ईमानदारी का फल हमेशा मीठा होता है।लगन और मेहनत से किए हुए कार्य से ही जीवन में सफलता पाई जा सकती हैं। 

कहानी -2

ईनाम 

बहुत पहले की बात है मगध देश में एक न्याय प्रिय राजा ने राज करता था। वह बहुत बुद्धिमान व परोपकारी राजा था। उसके राज्य में विद्वानों कवियों व अन्य बुद्धिजीवियों का सदा सम्मान किया जाता था।

राजा के सभी दरबारी व मंत्रीगण राजा की तरह ही अनुशासित व न्यायप्रिय थे। लेकिन राजा का एक दरबारी स्वभाव से बहुत ही लालची था। जब भी कोई व्यक्ति राजा से मिलने की इच्छा व्यक्त करता तो , वह दरबारी राजा से मिलाने के एवज में लोगों से रिश्वत के नाम पर एक अच्छी खासी रकम वसूल लेता था।

एक दिन पड़ोसी देश का एक विद्वान कवि राजा से मिलने उसके दरबार में आया ।वह राजा को अपनी कविताएं सुनाना चाहता था।लेकिन लालची दरबारी ने उसे दरबार में जाने से रोक दिया और कवि से कहने लगा “मैं तुम्हें राज दरबार मैं एक ही शर्त पर जाने दूंगा। जब तुम यह वादा करो कि राजा से मिलने वाले इनाम का आधा भाग मुझे दोगे”।

कवि विद्वान ही नहीं चतुर भी था ।उसने लालची दरबारी से कहा “ठीक है राजा से जो भी इनाम मिलेगा। उसे आधा आधा बांट लेंगे”।

कवि दरबार में पहुंचा ।उसने राजदरबार में एक से बढ़कर एक कविताएं राजा के सामने प्रस्तुत की ।राजा उसकी कविताएं सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ ।और उसने कवि से कहा ” हे कवि तुम जो भी इनाम मांगना चाहते हो , मांग लो “।

कवि ने काफी सोच-विचार किया ।उसके बाद राजा से कहा “हे राजन ! अगर आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मुझे सौ कोड़े मार दीजिए”।

यह बात सुनकर राजा व दरबारी सभी आश्चर्यचकित हो गये।उसने कवि को बहुत समझाने की कोशिश की। लेकिन कवि नहीं माना ।अंततः राजा ने कवि की बात मान ली और अपने दरबारी को कवि को सौ कोड़े लगाने का आदेश दिया और दरबारी ने कवि को कोड़े लगाने शुरू कर दिए ।

जैसे ही कवि को 50 कोड़े लगे। कवि जोर जोर से चिल्लाया “बस करो , बाकी का आधा ईनाम मुझे दरबारी को देना है । हे राजन !! मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि मेरा बाकी का आधा ईनाम दरबारी को दे दिया जाए”।

राजा की समझ में कुछ नहीं आया ।तब कवि ने राजा के सामने सारी सच्चाई बता दी । कवि की बात सुनकर राजाा ने उस लालची दरबारी को बुलाकर उसे 50 कोड़े तो लगाए ही , साथ में उसको कारागार में भी डाल दिया।

Moral of the story

अधिक लालच करने वाला व्यक्ति अपना मान सम्मान खो देता है।

कहानी – 3 

अहंकार से पतन

श्वेतकेतु ऋषि आरुणि का पुत्र था।ऋषि आरुणि ने अपने घर में ही पुत्र को प्रारंभिक शिक्षा और संस्कार दिए।लेकिन कुछ बड़ा होने पर ऋषि आरुणि ने श्वेतकेतु को धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने गुरुकुल में भेज दिया।

ऋषि आरुणि ने श्वेतकेतु से कहा कि “तुम्हें भी कुल परंपरा के अनुसार ही गुरुकुल में रहकर साधना और धर्मशास्त्रों का अध्ययन करना होगा।गुरुकुल में ही तुम्हारा उपनयन संस्कार होगा। गुरु की सेवा और सान्निध्य से ही तुम विभिन्न उपनिषदों और वेदों में पारंगत हो सकोगे”।

श्वेतकेतु पिता का आदेश मानकर गुरुकुल में जाकर गुरु की सेवा में लग गये।और गुरुकुल में रहकर साधना और धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने लगे। और चौबीस वर्ष की आयु में विद्या अध्धयन पूरा होने पर घर लौटे।

लेकिन उन्हें यह झूठा अभिमान हो गया कि वेदों का उससे बड़ा कोई दूसरा विद्वान् नहीं है।और वह शास्त्रार्थ में सभी को पराजित कर सकता है।लेकिन पिता ने अपने पुत्र के अभिमानी और उदंडी स्वभाव को सहज ही भांप लिया। वह समझ गए कि एक दिन इसका अहंकार इसके पतन का कारण बनेगा।

ऋषि आरुणि ने अपने पुत्र का अहंकार नष्ट करने की सोची।एक दिन ऋषि आरुणि ने एकांत पाकर पुत्र से धर्मशास्त्र व आत्मा संबंधी कुछ प्रश्न पूछे।पर वह किसी भी प्रश्न का उत्तर सही ढंग से नहीं दे पाया।

आरुणि ने कहा “पुत्र तुम्हारे गुरु तो महान वेदों के ज्ञाता हैं।लेकिन अहंकारग्रस्त होने के कारण तुम उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाए। गुरु से कुछ पाने के लिए विनयशील होना आवश्यक है।अनजान बनकर ही गरु से कुछ सीखा जा सकता है”।

यह सुनकर श्वेतकेतु का अहंकार नष्ट हो गया। और वो अपना अहंकार त्याग कर पुन: धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने लगे। 

Moral Of The Story (अहंकार से पतन)

योग्य गुरु तो उस सागर के समान हैं जिसमें अथाह ज्ञान रूपी पानी भरा है। लेकिन यह उस शिष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपने गुरु के ज्ञान रूपी समुद्र से अपने लिए कितना ज्ञान ले सकता हैं। और अहंकार तो सदैव ही मनुष्य का सर्वनाश करता हैं। 

कहानी – 4

पुत्रधर्म 

ब्राह्मण कुल में जन्मे ऋषि अंगिरस सदैव सत्संग में लगे रहते थे।उन्हें लगता था मोक्ष पाने के लिए सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर तपस्या करना आवश्यक हैं।लेकिन उनकी काफी वृद्ध मां उन्हीं के सहारे थी।

एक बार ऋषि अंगिरस तपस्या के लिए घर छोड़कर जाना चाहते थे।लेकिन वो जानते थे कि उनकी मां उन्हें घर छोड़कर जाने की इजाजत नहीं देंगी।इसीलिए एक दिन ऋषि अंगिरस मां को सोता हुआ छोड़ कर घर से तपस्या के लिए निकल गए।

मां काफी वृद्ध थी। जो स्वयं का काम भी नहीं कर सकती थी।एक दिन भूखी प्यासी मां के मुंह से अचानक निकल पड़ा “अंगिरस, तू मुझे इस हालत में भूखा-प्यासा छोड़कर गया हैं। इसीलिए तेरी तपस्या कभी भी सफल नहीं होगी”।

अब अंगिरस जब भी तपस्या में बैठते तो उन्हें किसी वृद्धा की दर्द भरी चीत्कार सुनाई देती। जिससे उनका मन तपस्या में नहीं लग पाता ।और वह अब पहले से कहीं ज्यादा बैचेन हो गये।

एक दिन वो ऋषि अगस्त्य के पास पहुंचे और कहा “ऋषिवर मैं जब भी तपस्या में बैठता हूँ। तो मुझे किसी वृद्धा की चीत्कार सुनाई पड़ती हैं।और मेरा मन विचलित हो उठता है।ऋषि ने पूछा “क्या तुमने अपनी मां से घर छोड़कर तपस्या करने की आज्ञा ली थी”?

उन्होंने कहा “नहीं ,मैं चुपचाप घर त्यागकर वन में आ गया था।ऋषि ने कहा ” धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि मां की सेवा ही सर्वोच्च धर्म है। तुमने अपनी वृद्ध मां की अवहेलना कर अधर्म किया है।इसलिए तपस्या सफल नहीं हई” ।

अंगिरस ने अगस्त्य जी के आदेश पर घर लौटकर मां से क्षमा मांगी और अपने पुत्रधर्म का निर्वहन किया।उन्हें प्रसन्न करने के बाद ही अंगिरस ने तपस्या कर सिद्धि प्राप्त की। 

Moral Of The Story (मां की सेवा )

हमारे धर्मशास्त्रों में कहा गया हैं कि किसी भी व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य व सर्वोच्च धर्म अपने माँ बाप की सेवा करना ही हैं।उन्हीं की सेवा कर और उन्हें प्रसन्न करके ही दुनिया के सारे पुण्य कमाये जा सकते हैं।  

 

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